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आत्म-कथा : भाग ५
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मैं मानता आया हूं कि तामिल तेलगू आदि दक्षिण प्रांतके लोगोंपर मेरा कुछ हक है, और अवतक ऐसा नहीं लगा है कि मैंने यह विचार करने में जरा भी भूल की है । आमंत्रण स्वर्गीय श्री कस्तूरीरंगा ऐयंगरकी प्रोरसे आया था । मद्रास जाते ही मुझे जान पड़ा कि इस आमंत्रणके पीछे श्री राजगोपालाचार्य थे । श्री राजगोपालाचार्य के साथ मेरा यह पहला परिचय माना जा सकता है । पहली ही बार हम दोनोंने एक दूसरेको यहां देखा ।
सार्वजनिक काममें ज्यादा भाग लेनेके इरादेसे और श्री कस्तूरीरंगा ऐयंगर आदि मित्रोंकी मांगसे वह सेलम छोड़कर मद्रास वकालत करने वाले थे मुझे उन्हीं के साथ हराने की व्यवस्था की गई थी। मुझे दो-एक दिन बाद मालूम हुआ कि मैं उन्हीं के घर ठहराया गया हूं। वह बंगला श्री कस्तूरीरंगा ऐयंगरका होने के कारण मैंने यही मान लिया था कि मैं उन्हींका अतिथि हूं । महादेव देसाईने मेरी यह भूल सुधारी । राजगोपालाचार्य दूर-ही-दूर रहते थे । किंतु महादेवने उनसे भलीभांति परिचय कर लिया था । महादेवने मुझे चेताया, “ आपको श्री राजगोपालाचार्यसे परिचय कर लेना चाहिए ।
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मैंने परिचय किया । उनके साथ रोज ही लड़ाईके संगठनकी सलाह किया करता था । सभाओं के अलावा मुझे और कुछ सूझता ही नहीं था । रौलटबिल अगर कानून बन जाय तो उसका सविनय भंग कैसे हो ? सविनय भंगका अवसर तो तभी मिल सकता था, जब सरकार देती । दूसरे किन कानूनोंका सविनय भंग हो सकता है ? उसकी मर्यादा क्या निश्चित हो ? ऐसी ही चर्चाएं होती थीं ।
श्री कस्तूरीरंगा ऐयंगरने नेताओं की एक छोटी-सी सभा की । उसमें भी खूब चर्चा हुई। उसमें श्री विजयराघवाचार्य खूब हाथ बंटाते थे । उन्होंने यह सुझाया कि तफसील से हिदायतें लिखकर मुझे सत्याग्रहका एक शास्त्र लिख डालना चाहिए । पर मैंने कहा कि यह काम मेरी शक्तिके बाहर है ।
यों सलाह मशवरा हो रहा था इसी बीच खबर आई कि बिल कानून बनकर गजट में प्रकाशित हो गया । जिस दिन यह खबर मिली, उस रातको मैं विचार करता हुआ सो गया । भोरमें बड़े सवेरे उठ खड़ा हुआ । अभी अर्धनिद्रा होगी कि मुझे स्वप्नमें एक विचार सूझा । सवेरे ही मैंने श्री राजगोपालाचार्यको