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आत्म-कथा : भाग ५
बदले हानि ही होगी-- इस बातको बहुतेरे लोग समझ गये ।
___ 'हमें तो आपके विदेशी वस्त्रके बहिष्कारसे संतोष हो ही नहीं सकता। किस दिन हम अपने लिए सारा कपड़ा यहां बना सकेंगे, और कब विदेशी वस्त्रका बहिष्कार होगा ? हम तो कोई ऐसी चीज चाहते हैं, जिससे ब्रिटिश लोगोंपर तुरंत असर हो । आपके बहिष्कारसे हमारा झगड़ा नहीं; पर हमें तो कोई तेज
और तुरंत असर करनेवाली चीज बताइए।' इस आशयका भाषण मौलानाने किया। इस भाषणको मैं सुन रहा था। मेरे मनमें विचार उठा कि विदेशी वस्त्रके बहिष्कारके साथ ही कोई और नवीन बात पेश करनी चाहिए। उस समय मुझे यह तो स्पष्ट मालूम होता था कि विदेशी वस्त्रका बहिष्कार तुरंत नहीं हो सकता। सोलहों आना खादी उत्पन्न करनेकी शक्ति यदि हम चाहें तो हमारे अंदर है, यह बात जो मैं आगे चल कर देख पाया सो उस समय न देख पाया था। अकेली मिलें वक्तपर दगा देंगी, यह मैं तब भी जानता था। जिस समय मौलाना साहबने अपना भाषण पूरा किया, उस समय में जवाब देनेके लिए तैयार हो रहा था ।
मुझे उस नई चीजके लिए उर्दू-हिंदी शब्द न सूझा । मुसलमानोंकी ऐसी खास सभामें युक्ति-युक्त भाषण करनेका यह मुझे पहला ही अनुभव था। कलकत्तेमें मुस्लिम-लीगकी सभामें मैं कुछ बोला था; पर वह तो कुछ ही मिनटके लिए और सो भी वहां हृदयस्पर्शी भाषण करना था। यहां तो मुझे ऐसे समाजको समझाना था, जो मुझसे विपरीत मत रखता था; पर अब मेरी झेंप मिट गई थी। देहलीके मुसलमानोंके सामने सकील उर्दू में लच्छेदार भाषण नहीं करना था बल्कि अपना मत टूटी-फूटी हिंदीमें समझाना था। यह काम मैं अच्छी तरह कर सका । हिंदी-उर्दू ही राष्ट्रभाषा हो सकती है, इसका यह सभा प्रत्यक्ष प्रमाण । थी। यदि मैंने अंग्रेजी में वक्तृता दी होती तो मेरी गाड़ी आगे नहीं चल सकती थी।
और मोलाना साहबने जो पुकार की उसका समय न पाया होता और यदि आता तो मुझे उसका उत्तर न मिलता।
उर्दू अथवा गुजराती शब्द न सूझ पड़ा, इससे मुझे शर्म मालूम हुई; पर उत्तर तो दिया ही। मुझे 'नॉन-कोऑपरेशन' शब्द हाथ लगा। जब मौलाना साहब भाषण कर रहे थे तब मेरे मन में यह भाव उठ रहा था कि हम खुद कई