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आत्म-कथा : भागे ५
लाला हरकिशनलालने इसकी संतोषजनक सुविधा कर देनेका बीड़ा उठाया। उन्होंने कहा कि जिस दिन मत लेना हो उस दिन दर्शकोंको न आने देंगे, सिर्फ प्रतिनिधि ही प्रावेंगे और मत गिना देनेका जिम्मा मेरा; पर आप कांग्रेसकी बैठकमें गैरहाजिर नहीं रह सकते ।
अंतको मैं हारा । मैंने अपना प्रस्ताव बनाया और बड़े संकोचके साथ उसे पेश करना स्वीकार किया। श्री जिना और मालवीयजी समर्थन करनेवाले थे। भाषण हुए। मैं देख सकता था कि यद्यपि हमारे मतभेदमें कहीं कटुता न थी, भाषण में भी दलीलोंके सिवा और कुछ न था, फिर भी सभा इतने मतभेद को सहन नहीं कर सकती थी, और उसे दुःख हो रहा था। सभा एकमत चाहती थी।
उधर भाषण हो रहे थे, पर इधर भेद मिटाने के प्रयत्न चल रहे थे। आपसमें चिट्ठियां जा पा रही थीं। मालवीयजी तो हर तरहसे समझौता करनेके लिए मिहनत कर रहे थे । इतने में जयरामदासने अपना सुझाव मेरे हाथमें रक्खा और बड़े मधुर शब्दोंमें मत देने के संकटसे प्रतिनिधियोंको बचा लेनेका अनुरोध मुझसे किया। मुझे वह पसंद आ गया। मालवीयजीकी नजर तो चारों ओर अाशाकी खोजमें फिर रही थी। मैंने कहा कि यह संशोधन दोनोंको स्वीकार हो सकता है। लोकमान्यको बताया, उन्होंने कहा, दासको पसंद हो तो मुझे आपत्ति नहीं। देशबंधु पिघल गये। उन्होंने विपिनचंद्र पालकी ओर देखा। मालवीयजीको अब पूरी आशा बंध गई और उन्होंने चिट्ठी हाथसे छीन ली। देशबंधुके मुंहसे 'हां' शब्द अभी पूरा निकला ही नहीं था कि वह बोल उठे-- " सज्जनों, आप यह जानकर प्रसन्न होंगे कि समझौता हो गया है।" फिर तो क्या पूछना था ? तालियोंकी हर्षध्वनिसे सारा मंडप गूंज उठा और लोगोंके चेहरोंपर जहां गंभीरता थी वहां खुशी चमक उठी ।
यह प्रस्ताव क्या था, उसकी चर्चा करनेकी यहां जरूरत नहीं, क्योंकि यह प्रस्ताव कैसे हुआ, यही बताना मेरे इन प्रयोगोंका विषय है ।
समझौतेने मेरी जिम्मेदारी बढ़ा दी ।