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' अध्याय ३७ : अमृतसर-कांग्रेस बातोंमें जिस सरकारका साथ दे रहे हैं उसीके विरोधकी जो ये सब बातें करते हैं, सो व्यर्थ है। तलवारके द्वारा प्रतिकार नहीं करना है, तो फिर उसका साथ न देना ही उसका प्रतिकार करना है, यह मुझे सूझा और मेरे मुखसे पहली बार 'नॉन-कोऑपरेशन' शब्दका उच्चार उस सभामें हुआ। अपने भाषणमें मैंने उसके समर्थन में अपनी दलीलें पेश की। इस समय मुझे इस बातका खयाल न था कि इस शब्दमें क्या भाव आ जाते हैं। इस कारण मैं उनकी तफसीलमें नहीं गया। मुझे इतना ही कहा याद पड़ता है--
"मुसलमान भाइयोंने एक और भी मार्केका फैसला किया है। खुदा न खास्ता अगर सुलहकी शर्ते उसके खिलाफ गईं तो सरकारकी सहायता करना बंद कर देंगे। मैं समझता हूं, लोगोंका यह हक है । सरकारी खिताबोंको रखने या सरकारी नौकरी करनेके लिए हम बंधे हुए नहीं हैं। जबकि खिलाफतके जैसे मजहबी मामले में हमें नुकसान पहुंचता हो तो हम उसकी मदद कैसे करेंगे? इसलिए अगर खिलाफतका फैसला हमारे खिलाफ जाय तो सरकारको मदद न देनेका हमें हक है ।”
पर उसके बाद तो कई महीनेतक इस बातका प्रचार नहीं हुआ। महीनोंतक यह शब्द इस सभामें ही छिपा पड़ा रहा । एक महीने के बाद जब अमृतसरमें कांग्रेस हुई तब मैंने उसमें असहयोग संबंधी प्रस्तावका समर्थन किया था। क्योंकि उस समय मैंने यही आशा रक्खी थी कि हिंदू-मुसलमानोंको असहयोगका अवसर नहीं आयेगा।
अमृतसर-कांग्रेस .फौजी कानूनके अनुसार सैकड़ों निर्दोष पंजाबियोंको नाममात्रकी अदालतोंने नाममात्रके लिए सबूत लेकर कम या अधिक मियादके लिए जेलखानोंमें ठंस दिया था; परंतु पंजाब सरकार उन्हें जेलमें रख न सकी ; क्योंकि इस घोर अन्यायके खिलाफ देशमें चारों ओर इतनी बुलंद आवाज उठी कि सरकार इन कैदियोंको अधिक