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अध्याय ३० : वह अद्भुत दृश्य
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वह अद्भुत दृश्य. एक अोर रौलट-कमिटीके विरुद्ध आंदोलन बढ़ता चला और दूसरी ओर सरकार उसकी सिफारिशोंपर अमल करनेके लिए कमर कसती गई। रौलट-बिल प्रकाशित हुआ। मैं धारा-सभाकी बैठक में सिर्फ एक ही वार गया हूं। सो भी रौलट-बिलकी चर्चा सुनने । शास्त्रीजीने बहुत ही धुंआधार भाषण किया और सरकारको चेतावनी दी। जब शास्त्रीजीकी वाग्धारा चल रही थी, उस समय वाइसराय उनकी ओर ताक रहे थे। मुझे तो ऐसा लगा कि शास्त्रीजीके भाषणका असर उनके मनपर पड़ा होगा। शास्त्रीजी पूरे-पूरे भावावेशमें आ गये थे ।
किंतु सोये हुएको जगाया जा सकता है । जागता हुआ सोनेका ढोंग करे तो उसके कान में ढोल बजानेसे भी क्या होगा। धारा-सभामें बिलोंकी चर्चा करनेका प्रहसन तो करना ही चाहिए। सरकारने वह प्रहसन खेला। किंतु जो काम उसे करना था उसका निश्चय तो हो ही चुका था। इसलिए शास्त्रीजीकी चेतावनी बेकार साबित हुई ।
और इसमें मुझ जैसे की तूतीकी आवाज तो सुनता ही कौन ? मैंने बाइसरायसे मिलकर खूब विनय की, खानगी पत्र लिखे, खुली चिट्ठियां लिखीं, उनमें मैंने यह साफ-साफ बतलाया था कि सत्याग्रहके सिवाय मेरे पास दूसरा रास्ता नहीं है। किंतु सब बेकार गया ।
अभी बिल गजटमें प्रकाशित नहीं हुआ था। मेरा शरीर था तो निर्बल, किंतु मैंने लंबे सफरका खतरा मोल लिया । अभी ऊंची आवाजसे बोलनेकी शक्ति नहीं आई थी। खड़े होकर बोलने की शक्ति जो तबसे गई सो अबतक नहीं आई है। खड़े होकर बोलते ही थोड़ी देरमें सारा शरीर कांपने लगता और छाती और पेटमें घबराहट मालूम होने लगती है। किंतु मुझे ऐसा लगा कि मद्राससे आये हुए निमंत्रणको अवश्य स्वीकार करना चाहिए । दक्षिण प्रांत उस समय मुझे घरके ही समान लगते थे । दक्षिण अफ्रीकाके संबंधके कारण