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अध्याय ३४ : 'नवजीवन' और 'यंग इंडिया'
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पंजाब सरकारके हुक्मको तोड़ा था सो उन्हें पसंद नहीं था । मैंने सविनय भंगको जो मुल्तवी किया, उससे वह पूरे सहमत थे । मेरे सत्याग्रह मुल्तवी रखनेका इरादा प्रकट करनेके पहले ही पत्र द्वारा उन्होंने मुझे मुल्तवी रखनेकी सलाह दी थी और वह पत्र बंबई और अहमदाबादके फासले के कारण, मेरा इरादा जाहिर कर चुकनेके बाद, मुझे मिला था । इसलिए उनके देश निकालेपर मुझे जितना आश्चर्य हुआ, उतना ही दुःख भी हुआ ।
इस घटना के कारण 'कानिकल' के व्यवस्थापकोंने उसे चलानेका बोझा मुझपर डाला । मि० बरेलवी तो थे ही, इसलिए मुझे बहुत कुछ करने की जरूरत नहीं थी'; किंतु तो भी मेरे स्वभावानुसार यह जिम्मेदारी मेरे लिए बहुत हो गई थी । किंतु मुझे यह जिम्मेदारी बहुत दिन नहीं उठानी पड़ी | सरकारकी मिहरबानी से 'क्रानिकल' बंद हो गया ।
जो 'क्रानिकल' के संचालक थे वे ही 'यंग इंडिया' की व्यवस्थाकी भी देखभाल करते थे ---- यानी उमर सुबानी और शंकरलाल बैंकर । इन दोनों भाइयोंने 'यंग इंडिया' की जिम्मेदारी लेनेका सुझाव किया और 'यंग इंडिया' तथा 'कानिकल' की घटी थोड़ी कम करनेके लिए हफ्तेमें एक बारके बदले दो बार प्रकाशित करना उन्हें और मुझे ठीक लगा। मुझे सत्याग्रहका रहस्य लोगोंको समझानेका उत्साह था । पंजाब के बारेमें में और कुछ नहीं तो उचित टीका जरूर कर सकता था और यह सरकारको भी पता था कि उसके पीछे सत्याग्रहकी शक्ति मौजूद है । इसलिए मैंने इन मित्रोंका सुझाव मंजूर कर लिया। किंतु अंग्रेजीके जरिये भला सत्याग्रहकी तालीम कैसे दी जा सकती है ? मेरे कार्यका मुख्य क्षेत्र गुजरात था। भाई इंदुलाल याज्ञिक उस समय इसी टोली में थे । उनके हाथमें मासिक 'नवजीवन' था । उसका खर्च भी यही मित्र उठाते थे । यह पत्र भाई इंदुलाल और उन मित्रोंने मुझे सौंप दिया और भाई इंदुलालने उसमें काम करनेका भार भी अपने सिर लिया। इस मासिक को साप्ताहिक बनाया । इस बीच 'क्रानिकल' पुनर्जीवित हुआ । इसलिए 'यंग इंडिया' फिर साप्ताहिक हो गया और मेरे सुझावपर उसे अहमदाबाद ले गये । दो अखबार अलग-अलग शहरोंमें चलें तो खर्च अधिक होता और मेरी असुविधा अधिक बढ़ती । 'नवजीवन' तो अहमदाबादसे ही निकलता था । यह अनुभव तो मुझे 'इंडियन