Book Title: Atmakatha
Author(s): Mohandas Karamchand Gandhi, Gandhiji
Publisher: Sasta Sahitya Mandal Delhi

View full book text
Previous | Next

Page 473
________________ ४५६ आत्म-कथा : भाग ५ स्टेशनपर वल्लभभाई पाने वाले थे। वह आये और मेरी तकलीफको जान गये । पर मेरी व्याधि असह्य थी, यह न तो मैंने उन्हें जानने दिया और न दूसरे साथियोंसे ही कहा । नडियाद पहुंचे। यहांसे अनाथाश्रम जाना था। सिर्फ आध मीलका फासला था। पर वह दस मील-सा मालूम हुआ। बड़ी मुश्किलसे वहां पहुंचा। पर मरोड़ा बढ़ता जाता था। पंद्रह-पंद्रह मिनटमें पाखाना जानेकी हाजत होने लगी। आखिर में हारा। अपनी असह्य वेदनाका हाल मित्रोंसे कहा और बिस्तर पकड़ा। अभीतक आश्रमकी मामूली टट्टियोंमें पाखानेके लिए जाता था। अब कमोड ऊपर मंगाया । लज्जा तो बहुत मालूम हो रही थी, पर लाचार था। फूलचंद बापूजी बिजलीकी तरह दौड़कर कमोड लाये । साथी चिंतातुर होकर मेरे आस-पास एकत्र हो गए। उन्होंने अपने प्रेमसे मुझे नहला दिया। पर मेरे दुःखको आप उठाकर तो बेचारे हलका कर नहीं सकते थे। इधर मेरी हठका कोई ठिकाना न था । डाक्टरको बुलानेसे मैंने इन्कार कर दिया--"दवा तो हर्गिज नहीं लूंगा। अपने कियेका फल भोगूंगा।" साथियोंने यह सब दुखी मुंहसे सह लिया। चौबीस घंटेके अंदर तीस-चालीस बार मैं टट्टी गया। खाना तो मैंने बंद कर ही दिया था। शुरूके दिनोंमें तो फलोंका रस भी नहीं लिया । रुचि ही न थी। जिस शरीरको आजतक मैं पत्थरके जैसा मानता था, वह मिट्टी-सा हो गया। सारी शक्ति जाने कहां चली गई। डॉ० कानूगो आये। उन्होंने दवा लेनेके लिए मुझे बहुत समझाया। पर मैंने इन्कार कर दिया । इंजेक्शन देनेकी बात कही। मैंने इसपर भी इन्कार ही किया। इंजेक्शनके विषयमें मेरा उस समयका अज्ञान हास्यजनक था। मेरा यही खयाल था कि इंजेक्शन तो किसी प्रकार की लस- सीरम होगी। बादमें मुझे मालूम हुआ कि डॉक्टरने जो इंजेक्शन बताया था वह तो एक प्रकारका वनस्पति-तत्व था। पर जब यह ज्ञान हुआ तब तो अवसर बीत गया था। टट्टियां जारी थीं। बहुत परिश्रमके कारण बुखार और बेहोशी भी आ गई। मित्र और भी घबराये । अन्य डॉक्टर भी आये, जो बीमार ही उनकी न सुने तब उसके लिए वे क्या कर सकते थे ? सेठ अंबालाल और उनकी धर्मपत्नी नडियाद आई। साथियोंसे सलाह

Loading...

Page Navigation
1 ... 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504 505 506 507 508 509 510 511 512 513 514 515 516 517 518