Book Title: Atmakatha
Author(s): Mohandas Karamchand Gandhi, Gandhiji
Publisher: Sasta Sahitya Mandal Delhi

View full book text
Previous | Next

Page 466
________________ अध्याय २७ : रंगरूटोंकी भरती ४४६ खतम होनेके बाद आपको जितने नीतिके प्रश्न उठाने हों, आप उठा सकते हैं, और जितनी छानबीन करनी हो, कर सकते हैं।" यह दलील नई न थी; परंतु जिस अवसरपर जिस प्रकार वह रक्खी गई, उससे मुझे नई-सी जान पड़ी और मैने सभामें जाना मंजूर कर लिया । यह निश्चित हुआ कि खिलाफतके बारेमें वाइसरायको पत्र लिखकर भेजूं । २७ रंगरूटोंकी भरती सभामें मैं हाजिर हुआ। वाइसरायकी तीव्र इच्छा थी कि मैं सैन्य भरतीके प्रस्तावका समर्थन करूं। मैंने हिंदुस्तानीमें बोलनेकी प्रार्थना की। वाइसरायने यह स्वीकार कर ली; मगर साथ ही अंग्रेजीमें भी बोलनेका अनुरोध किया। मुझे भाषण तो देना था ही नहीं। मैं इतना ही बोला-- "मुझे अपनी जिम्मेदारीका पूरा भान है और उस जिम्मेदारीको समझते हुए मैं इस प्रस्तावका समर्थन करता हूं।" हिंदुस्तानी में बोलनेके लिए मुझे बहुतोंने धन्यवाद दिया। वे कहते थे कि वाइसरायकी सभामें हिंदुस्तानी बोलनेका इस जमाने में यह पहला ही दृष्टांत था । यह धन्यवाद और पहला ही दृष्टांत होनेकी खबर मुझे अखरी। मैं शरमाया । अपने ही देशमें देश-संबंधी कामकी सभामें, देशी भाषाका बहिष्कार या उसकी अवगणना होना कितने दुःखकी बात है ? और मुझ जैसा कोई शख्स यदि हिंदुस्तानी में एक या दो वाक्य बोल ही दे तो उसे धन्यवाद किस बात का ? ऐसे प्रसंग हमें अपनी गिरी हुई दशाका भान कराते हैं। संभामें जो वाक्य मैंने कहे थे उनमें मेरे लिए तो बहुत वजन था; क्योंकि यह सभा या यह समर्थन ऐसे न थे, जिन्हें मैं भूल सकू। अपनी एक जिम्मेदारी तो मुझे दिल्ली में ही खत्म कर लेनी थी। वाइसरायको पत्र लिखनेका काम मुझे आसान नहीं लंगा। सभामें जानेकी अपनी आनाकानी, उसके कारण, भविष्यकी आशाएं वगैराका खुलासा, अपने लिए सरकारके लिए, और प्रजाके लिए, करनेकी आवश्यकता मुझे जान पड़ती थी। मैंने वाइसरायको पत्र लिखा । उसमें लोकमान्य तिलक, अली भाई २६

Loading...

Page Navigation
1 ... 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504 505 506 507 508 509 510 511 512 513 514 515 516 517 518