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अध्याय २७ : रंगरूटोंकी भरती
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ही नहीं मिलती थी तो खाना कहांसे मिलता ? मांगना भी उचित नहीं जान पड़ता था । इसलिए यह निश्चय किया कि प्रत्येक स्वयंसेवक अपने भोजनका सामान अपने झोलेमें लेकर ही बाहर निकले । मौसम गर्मीका था । इसलिए ढ़नेका कुछ सामान साथ रखनेकी जरूरत नहीं थी ।
जिस-जिस गांव में हम जाते, वहां सभा करते । लोग आते तो मगर भरती के लिए नाम मुश्किल से एक या दो ही मिलते । 'आप अहिंसावादी होकर हमें हथियार लेने के लिए क्यों कहते हैं ? सरकारने हिंदुस्तानका कौनसा भला किया है जो आप उसे मदद देनेपर जोर देते हैं ? ' इस तरहके अनेक सवाल हमारे सामने पेश किये जाते थे ।
ऐसा होनेपर भी हमारे सतत कामका असर लोगोंपर होने लगा था । नाम भी यों ठीक संख्या में लिखे जाने लगे और हम मानने लगे कि अगर पहली टुकड़ी निकल पड़े तो दूसरी के लिए रास्ता साफ हो जायगा। कमिश्नरके साथ मैंने यह चर्चा शुरू कर दी थी कि जो रंगरूट भरती हो जायं उन्हें कहां रखना चाहिए, इत्यादि । दिल्ली के नमूनेपर कमिश्नर लोग जगह-जगह सभाएं करने लगे थे। वैसी सभा गुजरात में भी हुई। उसमें मुझे और मेरे साथियोंको भी आने का आमंत्रण था । यहां भी मैं गया था। किंतु अगर दिल्ली में मेरा जाना कम शोभता जान पड़ा था तो यहां और भी कम लगा। 'जी हां' 'जी हां' के वातावरण में मुझे चैन नहीं पड़ता था। यहां मैं जरा ज्यादा बोला था । मेरे बोलने में खुशामद जैसा तो था नहीं, बल्कि दो-एक कडुए वचन भी थे ।
रंगरूटोंकी भरती के संबंध में मैंने पत्रिका छापी थी । उसमें भरती होनेके निमंत्रण में एक दलील दी थी, जो कमिश्नरको खटकी थी । उसका सार यह था -- "ब्रिटिश राज्यके अनेक अपकृत्योंमें सारी जनताको शस्त्र - रहित करनेके कानूनका इतिहास उसका सबसे काला काम माना जायगा । यदि यह कानून रद्द कराना हो और शस्त्र चलाना सीखना हो तो उसके लिए यह सुवर्ण योग है । राजकी इस आपत्ति समय में मध्यमवर्ग यदि स्वेच्छा से मदद करेगा तो इससे पारस्परिक अविश्वास दूर होगा और जो शस्त्र धारण करना चाहते हैं वे खुशी से उन्हें रख सकेंगे ।" इसको लक्ष्य करके कमिश्नरको कहना पड़ा था कि उनके और मेरे बीच मतभेद होते हुए भी सभामें मेरी हाजिरी उन्हें प्रिय थी। मुझे भी अपने