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अध्याय २७ : रंगरूटोंकी भरती
४५३ . "परंतु शिक्षित वर्णने इससे कम कारगर रास्ता अख्तियार किया है। जन-समाजमें उसकी पहुंच बहुत है। मैं जबसे हिंदुस्तान में आया हूं तभी जनसमाजके गाढ़ परिचय आता रहा हूं और मैं आपको यह कहना चाहता हूं कि उनमें होमरूल प्राप्त करनेका उत्साह पैदा हो गया है। बिना होमरूलके प्रजाको कभी संतोष न होगा। वे यह समझते हैं कि होमरूल प्राप्त करनके लिए जितना भी त्याग किया जा सके कम ही होगा। इसलिए यद्यपि साम्राज्य के लिए जितने भी स्वयंसेवक दिये जा सकें देने चाहिएं, किंतु मैं आर्थिक मदद के लिए यह नहीं कह सकता हूं। लोगोंको हालतको जानकर मैं यह कह सकता हूं कि हिंदुस्तान अबतक जितनी मदद कर चुका है वह भी उसकी शक्तिसे अधिक है। परंतु मैं इतना अवश्य समझता हूं कि जिन्होंने सभा प्रस्तावका समर्थन किया उन्होंने इस कार्यमें प्राणांत तक मदद करनेका निश्चय किया है। परंतु हमारी स्थिति मुश्किल है। हम कोई दूकानके हिस्सेदार नहीं। हमारी सददको नींव भविष्यको आशापर स्थित है; और वह आशा क्या है, यह यहां विशेष रूपसे कहना चाहिए। मैं कोई सौदा करना नहीं चाहता। फिर भी मुझे इतना तो यहां अवश्य कहना चाहिए कि यदि इसमें हमें निराश होना पड़ा तो साम्राज्य के बारे में आज-तक हमारी जो धारणा है वह केवल मन समझी जायगी। ___ आपने अंदरूनी झगड़े भूल जानेकी जो बात कही है उसका अर्थ यदि यह हो कि जुल्म और अधिकारियोंके अपकृत्य सहन करें तो यह असंभव है। संगठित जुल्मके सामने अपनी सारी शक्ति लगा देना मैं अपना धर्म समझता हूं। इसलिए आप अधिकारियोंको हिदायत दें कि वे किसी भी जीवको अवहेलना न करें और पहले कभी जितना लोकमतका आदर नहीं किया उतना अब करें। चंपारनमें सदियोंके जल्मका विरोधकर मैंने ब्रिटिश न्यायका सर्वश्रेष्ठ होना प्रमाणित कर दिया है । खेड़ाकी रैयतने यह देख लिया है कि जब उसमें सत्यके लिए कष्ट सहन करनेकी शक्ति है तब सच्ची शक्ति राज्य नहीं, बल्कि लोकमत है। और इसलिए जिस सल्तनतको प्रजा शाप दे रही थी उसके प्रति अब