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अध्याय २५ : खेड़ाकी लड़ाईका अंत ४४५ कलेक्टरसे पूछा। जवाब मिला कि ऐसा हुक्म तो कबका निकल चुका है। मुझे उसकी खबर न थी; किंतु अगर ऐसा हुक्म निकला हो तो लोगोंकी प्रतिज्ञा पूरी हुई समझनी चाहिए। प्रतिज्ञामें यही बात थी। इसलिए इस हुक्मसे हमने संतोष माना ।
फिर भी इस अंतसे हममेंसे कोई खुश न हो सका ; क्योंकि सत्याग्रहकी लड़ाईके पीछे जो मिठास होनी चाहिए सो इसमें नहीं थी। कलेक्टर समझता था मैंने मानो कुछ नया किया ही नहीं है । गरीब लोगोंको छूट देनेकी बात थी, मगर ये भी शायद ही बचे । यह कहनेका अधिकार कि गरीब कौन है, प्रजा नहीं
आजमा सकी। मुझे इस बातका दुःख था कि प्रजामें यह शक्ति नहीं रह गई थी। इसलिए सत्याग्रहके अंतका उत्सव तो मनाया गया, मगर मुझे वह निस्तेज लगा।
___ सत्याग्रहका शुद्ध अंत वह समझा जा सकता है कि जब आरंभकी बनिस्बत अंतमें प्रजामें अधिक तेज और शक्ति दिखाई दे। किंतु ऐसा मुझे नहीं दिखाई दिया ।
ऐसा होनेपर भी लड़ाईके जो अदृश्य परिणाम आये, उनका लाभ तो आज भी देखा जा सकता है और मिल भी रहा है । खेड़ाकी लड़ाईसे गुजरात के किसान-वर्गकी जाग्रतिका, उसके राजनैतिक शिक्षणका आरंभ हुआ ।
विदुषी बसंतीदेवी (एनी बेसेंट) की 'होमरूल' की प्रतिभाशाली हलचलने उसको स्पर्श अवश्य किया था; किंतु किसानके जीवनमें शिक्षित-वर्गका, स्वयंसेवकोंका, सच्चा प्रवेश हुआ तो इसी लड़ाईसे कहा जा सकता है । सेवक पाटीदारोंके जीवन में प्रोत-प्रोत हो गये थे । स्वयं-सेवकोंको अपने क्षेत्रकी मर्यादा इस लड़ाईमें मालूम हुई, उनकी त्याग-शक्ति बढ़ी। वल्लभभाईने अपने-आपको इस लड़ाईमें पहचाना। अगर और कुछ नहीं तो एक यही परिणाम कुछ ऐसा-वैसा नहीं था। यह हम पिछले साल बाढ़-संकट निवारणके समय और इस साल बारडोली में देख चुके हैं। गुजरातके प्रजा-जीवनमें नया तेज आया, नया उत्साह भर गया। पाटीदारोंको अपनी शक्तिका भान हुआ, जो कभी नहीं मिटा। सबने समझा कि प्रजाकी मुक्तिका आधार खुद उसीके ऊपर है, उसीकी त्याग-शक्तिपर है। सत्याग्रहने खेड़ाके द्वारा गुजरातमें जड़ जमाई। इसलिए हालांकि लड़ाईके अंतसे मैं संतुष्ट न हो सका, मगर खेड़ाकी प्रजाको तो उत्साह ही मिला; क्योंकि