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आत्म-कथा : भाग ४
मेरे प्रयत्न में कहीं कसर हो रही है; परंतु मैं अब तक नहीं जान सका कि ऐसे-ऐसे विचार, जिन्हें हम नहीं चाहते हैं, कहांसे और किस तरह हमपर चढ़ाई कर देते हैं। हां, इस बात में मुझे कुछ भी संदेह नहीं है कि विचारोंको भी रोक लेने की कुंजी मनुष्यके पास है । पर अभी तो मैं इस निर्णयपर पहुंचा हूं कि वह चाबी प्रत्येकको अपने लिए खोजनी पड़ती है । महापुरुष जो अनुभव अपने पीछे छोड़ गये हैं वे हमारे लिए मार्ग-दर्शक हैं, उन्हें हम पूर्ण नहीं कह सकते । पूर्णता मेरी समझमें केवल प्रभु प्रसादी है और इसीलिए भक्त लोग अपनी तपश्चर्यासे पुनीत करके रामनामादि मंत्र हमारे लिए छोड़ गये हैं । मुझे विश्वास होता है कि अपने को पूर्णरूपसे ईश्वरार्पण किये बिना विचारोंपर पूरी विजय कभी नहीं मिल सकती । समस्त धर्म-पुस्तकोंमें मैंने ऐसे वचन पढ़े हैं और अपने ब्रह्मचर्य के सूक्ष्मतम पालनके प्रयत्नके संबंध में मैं उनकी सत्यताका अनुभव भी कर रहा हूं ।
परंतु मेरी इस छटपटाहटका थोड़ा-बहुत इतिहास अगले अध्यायोंमें आने ही वाला है, इसलिए इस प्रकरणके अंत में तो इतना ही कह देता हूं कि अपने उत्साह श्रावेगमें पहले-पहल तो मुझे इस व्रतका पालन सरल मालूम हुआ । परंतु एक बात तो मैंने व्रत लेते ही शुरू कर दी थी । पत्नी के साथ एक शय्या अथवा एकांत सेवनका त्याग कर दिया था । इस तरह इच्छा या अनिच्छासे जिस ब्रह्मचर्य का पालन मैं १९०० से करता आया हूं उसका प्रारंभ व्रतके रूपमें १९०६ के मध्य में हुआ ।
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सत्याग्रहकी उत्पत्ति
जोहान्सबर्ग में मेरे लिए ऐसी रचना तैयार हो रही थी कि मेरी यह एक प्रकारकी श्रात्म शुद्धि मानो सत्याग्रहके ही निमित्त हुई हो । ब्रह्मचर्यका व्रत ले लेने तक मेरे जीवनकी तमाम मुख्य घटनाएं मुझे छिपे छिपे सत्याग्रहके लिए ही तैयार कर रही थीं, ऐसा अब दिखाई पड़ता है ।
'सत्याग्रह' शब्द की उत्पत्ति होने के पहले सत्याग्रह वस्तुकी उत्पत्ति हुई है । जिस समय उसकी उत्पत्ति हुई उस समय तो मैं खुद भी नहीं जान सका कि यह