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अध्याय ४४: वकालत की कुछ स्मृतियां
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उठाना पड़े और अंतको कौन कह सकता है कि नतीजा क्या हो ? इस बातचीत के समय हमारे मवक्किल भी मौजूद I
मैंने कहा, "मैं तो समझता हूं कि मवक्किलको और हम लोगोंको ऐसी जोखिम जरूर उठानी चाहिए। फिर इस बातका भी क्या भरोसा कि अदालतको भूल मालूम हो जाय और हम उसे मंजूर न करें तो भी वह भूल-भरा फैसला कायम ही रहेगा और यदि भूल सुधारते हुए मवक्किलको नुकसान सहना पड़े तो क्या हर्ज है ?
बोले ।
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'पर यह तो तभी न होगा जब हम भूल कबूल करें ? " बड़े वकील
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'हम यदि मंजूर न करें तो भी अदालत उसे न पकड़ लेगी अथवा विपक्षी भी उसको न देख लेंगे इस बातका क्या निश्चय ? " मैंने उत्तर दिया । . " तो इस मुकदमे में आप बहस करने जायंगे ? भूल मंजूर करनेकी शर्त पर मैं बहस करने के लिए तैयार नहीं । " बड़े वकीलने दृढ़ता के साथ कहा । मैंने नम्रतापूर्वक उत्तर दिया, "यदि आप न जायंगे और मवक्किल चाहेंगे तो मैं जाने के लिए तैयार हूं । यदि भूल कबूल न की जाय तो इस मुकदमे में मेरे लिए काम करना असंभव है
।
"
इतना कहकर मैंने मवक्किल के मुंहकी ओर देखा । वह जरा चिंता में पड़े ; क्योंकि इस मुकदमे में मैं शुरू से ही था और उनका मुझपर पूरा-पूरा विश्वास था । वह मेरी प्रकृति से भी पूरे-पूरे वाकिफ थे । इसलिए उन्होंने कहा - " तो अच्छी बात है, श्राप ही बहस करने जाइए । शौकसे भूल मान लीजिए । हार ही नसीब में लिखी होगी तो हार जायंगे । आखिर सांचको ग्रांच क्या ? "
यह देखकर मुझे बड़ा आनंद हुआ। मैंने दूसरे उत्तरकी आशा ही नहीं रक्खी थी। बड़े वकीलने मुझे खूब चेताया और मेरी 'हठधर्मी' के लिए मुझपर तरस खाया और साथ ही धन्यवाद भी दिया ।
अब अदालत में क्या हुआ सो अगले अध्यायमें ।