Book Title: Atmakatha
Author(s): Mohandas Karamchand Gandhi, Gandhiji
Publisher: Sasta Sahitya Mandal Delhi

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Page 453
________________ आत्म-कथा : भाग ५ मेरे लिए वह खास प्रलोभन था कि वह जमीन जेलके निकट है। मैंने यह माना है कि सत्याग्रहाश्रम वासीके भाग्यमें जेल तो लिखा ही है, जेलका पडौस पसंद पड़ा। इतना तो मैं जानता था कि हमेशा जेलके लिए वैसा ही स्थान ढंढ़ा जाता है, जिसके आस-पासकी जगह साफ-सुथरी हो । कोई आठ दिनोंमें ही जमीनका सौदा हो गया। जमीनपर मकान एक भी न था। न कोई झाड़-पेड़ ही था। उसके लिए सबसे बड़ी सिफारिश तो यह थी कि वह एकांत और नदीके किनारे पर है । शुरूमें हमने तंबूमें रहनेका निश्चय किया। रसोईके लिए टीनका एक काम-चलाऊ छप्पर बना लिया और सोचा कि स्थायी मकान धीरे-धीरे बना लेंगे । इस समय आश्रममें काफी आदमी थे। छोटे-बड़े कोई चालीस स्त्रीपुरुष थे। इतनी सुविधा थी कि सब एक ही रसोईमें खाते थे। योजनाकी कल्पना मेरी थी, उसे अमलमें लानेका भार उठानेवाले तो नियमानुसार स्व. मगनलाल ही थे। ___ स्थायी मकान बननेके पहले असुविधाका तो कोई पार ही न था। बरसातका मौसम सिरपर था। सारा सामान चार मील दूर शहरसे लाना था। इस उजाड़ जमीनमें सांप वगैरा तो थे ही । ऐसे उजाड़ स्थानमें बालकोंको संभालनेकी जोखिम ऐसी-वैसी नहीं थी। सांप वगैराको मारते न थे; मगर उनके भयसे मुक्त तो हममें से कोई न था, आज भी नहीं है । हिंसक जीवोंको न मारनेके नियमका यथाशक्ति पालन फिनिक्स, टॉलस्टाय-फार्म और साबरमती--तीनों जगहों में किया है। तीनों जगहोंमें उजाड़ जंगल में रहना पड़ा है। तीनों जगहोंमें सांप वगैरा का उपद्रव खूब ही था; मगर तो भी अबतक एक भी जान हमें खोनी नहीं पड़ी है। इसमें मेरे-जैसा श्रद्धालु तो ईश्वरका हाथ, उसकी कृपा ही देखता है। ऐसी निर्रथक शंका कोई न करे कि ईश्वर पक्षपात नहीं करता, मनुष्यके रोजके काममें हाथ डालनेको वह बेकार नहीं बैठा है । अनुभवकी दूसरी भाषामें इस भावको रखना मैं नहीं जानता। ईश्वरकी कृतिको लौकिक भाषामें रखते हुए भी मैं जानता हूं कि उसका 'कार्य' अवर्णनीय है; किंतु अगर पामर मनुष्य उसका वर्णन करे तो उसके पास तो अपनी तोतली बोली ही होगी। आम तौर पर सांपको न मारते हुए भी वहांका

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