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आत्म-कथा : भाग ५
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अनसूयाबहनकी प्रांखोंसे यांसू निकल पड़े । मजदूर बोल उठे -- आप नहीं, हम उपवास करेंगे । आपको उपवास नहीं करने देंगे। हमें माफ कीजिए । हम अपनी टेकपर अड़े रहेंगे ।
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मैंने कहा, “ तुम्हारे उपवास करने की कोई जरूरत नहीं है । तुम अपनी प्रतिज्ञाका ही पालन करो तो बस है । हमारे पास द्रव्य नहीं है। मजदूरोंको भिक्षान खिलाकर हमें हड़ताल नहीं करनी है । तुम कहीं कुछ मजदूरी करके अपना पेट भरने लायक कमा लो तो, चाहे हड़ताल कितनी ही लंबी क्यों न हो, तुम निश्चित रह सकते हो । और मेरा उपवास तो कुछ-न-कुछ फैसलेके पहले छूटनेवाला नहीं है ।
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वल्लभभाई मजदूरोंके लिए म्युनिसिपैलिटी में काम ढूंढते थे; मगर वहां पर कुछ मिलने लायक नहीं था । श्राश्रमके बुनाई - घर में बालू भरनी थी । मगनलालने सुझाया कि उसमें बहुत से मजदूरोंको काम दिया जा सकता है । मजदूर काम करने को तैयार हुए। अनसूया बहनने पहली टोकरी उठाई और नदीमेंसे बालूकी टोकरियां उठाकर लानेवाले मजदूरोंका ठठ लग गया । यह दृश्य देखने लायक था। मजदूरोंमें नया जोर आया; उन्हें पैसा चुकाने वाले aar - चुकाते थक जाते थे ।
इस उपवासमें एक दोष था । मैं यह लिख चुका हूं कि मिल मालिकोंके साथ मेरा मीठा संबंध था । इसलिए यह उपवास उन्हें स्पर्श किये बिना रह नहीं सकता था । मैं जानता था कि बतौर सत्याग्रहीके उनके विरुद्ध मैं उपवास नहीं कर सकता। उनके ऊपर जो कुछ असर पड़े, वह मजदूरोंकी हड़तालका ही पड़ना चाहिए । मेरा प्रायश्चित्त उनके दोषके लिए न था; किंतु मजदूरोंके दोष के लिए था । मैं मजदूरोंका प्रतिनिधि था, इसलिए इनके दोषसे दोषित होता था । मालिकोंसे तो मैं सिर्फ विनय ही कर सकता था । उनके विरुद्ध उपवास करना तो बलात्कार गिना जायगा । तो भी मैं जानता था कि मेरे उपवासका असर उनपर पड़े बिना नहीं रह सकता । पड़ा भी सही; किंतु मैं अपने को रोक नहीं सकता था । मैंने ऐसा दोषमय उपवास करने का अपना धर्म प्रत्यक्ष देखा ।
मालिकों मैंने समझाया, "मेरे उपवाससे आपको अपना मार्ग जरा भी छोड़ने की जरूरत नहीं है ।” उन्होंने मुझे कडुए मीठे ताने भी मारे । उन्हें