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अध्याय १० : कसौटीपर
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में सर गुरुदास बनर्जीकी राय मुझे याद रह गई है। उन्हें नियमावली' पसंद आई; परंतु उन्होंने सुझाया कि इन व्रतोंमें नम्रताके व्रतको भी स्थान मिलना चाहिए । उनके पत्र की ध्वनि यह थी कि हमारे युवकवर्ग में नम्रताकी कमी है । मैं भी जगह-जगह नम्रताके अभावको अनुभव कर रहा था; मगर व्रतमें स्थान देनेसे नम्रता नम्रता न रह जानेका प्राभास होता था । नम्रताका पूरा अर्थ तो है शून्यता | शून्यता प्राप्त करनेके लिए दूसरे व्रत होते हैं । शून्यता मोक्षकी स्थिति है । मुमुक्षु या सेवकके प्रत्येक कार्य यदि नम्रता - निरभिमानता से न हों तो वह मुमुक्षु नहीं, सेवक नहीं, वह स्वार्थी है, अहंकारी है ।
आश्रम में इस समय लगभग तेरह तामिल लोग थे । मेरे साथ दक्षिण अफ्रीका से पांच तामिल बालक आये । वे तथा यहांके लगभग पच्चीस स्त्रीपुरुष मिलकर आश्रमका आरंभ हुआ था । सब एक भोजनशालामें भोजन करते थे और इस तरह रहनेका प्रयत्न करते थे, मानो सब एक ही कुटुंब हों ।
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कसौटीपर
श्राश्रमकी स्थापनाको अभी कुछ ही महीने हुए थे कि इतने में हमारी एक ऐसी कसौटी हो गई, जिसकी हमने प्राशा नहीं की थी । एक दिन मुझे भाई अमृतलाल ठक्करका पत्र मिला -- ' एक गरीब और दयानतदार अंत्यज कुटुंबकी इच्छा आपके आश्रम में आकर रहने की है । क्या आप उसे ले सकेंगे ?"
चिट्ठी पढ़कर मैं चौंका तो; क्योंकि मैंने यह बिलकुल प्राशा न की थी कि ठक्कर बापा- जैसोंकी सिफारिश लेकर कोई अंत्यज कुटुंब इतनी जल्दी आ जायगा । मैंने साथियोंको यह चिट्ठी दिखाई । उन लोगोंने उसका स्वागत किया । मैंने अमृतलाल भाईको चिट्ठी लिखी कि यदि वह कुटुंब आश्रम के नियमोंका पालन करने के लिए तैयार हो तो हम उसे लेनेके लिए तैयार हैं ।
बस, दूधाभाई, उनकी पत्नी दानीबहन और दुधमुंही लक्ष्मी आश्रम में आ गये । दूधाभाई बंबई में शिक्षक थे । वह आश्रम के नियमोंका पालन करने के लिए तैयार थे। इसलिए वह आश्रम में ले लिये गये ।