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आत्म-कथा : भाग ५
इसी प्रश्न संबंध में एक और बात भी आश्रम में स्पष्ट हो गई । इस विषय में जो-जो नाजुक सवाल पैदा हुए उनका भी हल मिला । कितनी ही प्रकल्पित
सुविधाओं का स्वागत करना पड़ा। ये तथा और भी सत्य की शोध के सिलसिले में हुए प्रयोगोंका वर्णन आवश्यक तो है; पर मैं उन्हें यहां छोड़ देता हूं । इस बातपर मुझे दुःख तो है; परंतु अब प्रागे के अध्यायोंमें यह दोष थोड़ा-बहुत रहता ही रहेगा-कुछ जरूरी बातें मुझे छोड़ देनी पड़ेंगी; क्योंकि उनमें योग देने वाले बहुतेरे पत्र अभी मौजूद हैं और उनकी इजाजतके बिना उनके नाम और उनसे संबंध रखनेवाली बातोंका वर्णन प्रजादी से करना अनुचित मालूम होता है । सबकी स्वीकृति समय-समयपर मांगना अथवा उनसे संबंध रखनेवाली बातें उनको भेजकर सुधरवाना एक असंभव बात है, फिर यह इस श्रात्मकथाकी मर्यादाके भी बाहर है । इसलिए अब आगेकी कथा यद्यपि मेरा दृष्टिसे सत्यके शोधक के लिए जानने योग्य है, फिर भी मुझे डर है कि वह अधूरी छपती रहेगी । इतना होते हुए भी ईश्वरकी इच्छा होगी तो असहयोगके युगतक पहुंचनेकी मेरी इच्छा व श्राशा है ।
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गिरमिट प्रथा
अब इस नये बसे हुए श्राश्रमको छोड़ कर, जो कि अब भीतरी और बाहरी तूफानोंसे निकल चुका था, गिरमिट प्रथा या कुली प्रथापर थोड़ा-सा विचार करनेका समय आ गया है। गिरमिटिया उस कुली या मजूरको कहते हैं, जो पांच या उससे कम वर्षके लिए मजूरी करनेका लेखी इकरार करके भारतके बाहर चला जाता है । नेटालके ऐसे गिरमिटियों परसे तीन पौंडका वार्षिक कर १९१४ में उठा दिया गया था; परंतु यह प्रथा अभी बंद नहीं हुई थी । १९१६ में भारतभूषण पंडित मालवीयजीने इस सवालको धारा सभामें उठाया था, और लार्ड हार्डिजने उनके प्रस्तावको स्वीकार करके यह घोषणा की थी यह प्रथा 'समय
ही उठा देने का वचन मुझे सम्राट्की ओरसे मिला है । परंतु मेरा तो यह स्पष्ट मोटा कि इस प्रथाको तत्काल बंद कर देनेका निर्णय हो जाना चाहिए। हिंदुशनी लारवाही से इस प्रथाको बहुत वर्षोंतक दरगुजर करता रहा;