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आत्म-कथा : भाग ५
सकता है । सर लल्लूभाईकी राय थी कि 'तुरंत' शब्द रक्खा जाय। उन्होंने कहा कि 'इकत्तीस जुलाई से तो 'तुरंत' शब्दमें अधिक जल्दीका भाव आता है । इसपर मैंने यह समझानेकी कोशिश की कि लोग 'तुरंत' शब्दका तात्पर्य न समझ सकेंगे। लोगोंसे यदि कुछ काम लेना हो तो उनके सामने निश्चयात्मक शब्द रखना चाहिए । 'तुरंत' का अर्थ सब अपनी मर्जीके अनुसार कर सकते हैं । सरकार एक कर सकती है, लोग दूसरा कर सकते हैं । परंतु 'इकत्तीस जुलाई' सब एक ही करेंगे और उस तारीख तक यदि कोई फैसला न हो तो हम यह विचार कर सकते हैं कि अब हमें क्या कार्रवाई करनी चाहिए । यह दलील डा० रोडको तुरंत जंच गई। अंतको सर लल्लूभाईको भी 'इकत्तीस जुलाई' Fat और प्रस्तावमें वही तारीख रक्खी गई । सभामें यह प्रस्ताव रक्खा गया और सब जगह 'इकत्तीस जुलाई की मर्यादा घोषित हुई ।
बंबईसे श्रीमती जायजी पेटिटकी अथक मिहनत से स्त्रियोंका एक प्रतिनिधिमंडल वायसरायके पास गया । उसमें लेडी ताता, स्वर्गीय दिलशाह बेगम वगैरा थीं । सब बहनोंके नाम तो मुझे इस समय याद नहीं हैं; परंतु इस प्रतिनिधिमंडलका असर बहुत अच्छा हुआ और वायसराय साहबने उसका आशा-वर्धक उत्तर दिया था । करांची, कलकत्ता वगैरा जगह भी मैं हो पाया था । सब जगह अच्छी सभायें हुईं और जगह-जगह लोगों में खूब उत्साह था। जब मैंने इस कामको उठाया तब ऐसी सभायें होनेकी और इतनी संख्या में लोगोंके मानेकी आशा मैंने नहीं की थी ।
इस समय मैं अकेला ही सफर करता था, इससे अलौकिक अनुभव प्राप्त होता था। खुफिया पुलिस तो पीछे लगी ही रहती थी; पर इनके साथ झगड़नेकी मुझे कोई जरूरत नहीं थी । मेरे पास कुछ भी छिपी बात नहीं थी । इसलिए वे न मुझे सताते और न में उन्हें सताता था । सौभाग्यसे उस समय मुझपर 'महात्मा' की छाप नहीं लगी थी, हालांकि जहां लोग मुझे पहचान लेते
इस नामक घोष होने लगता था । एक दफा रेलमें जाते हुए बहुतसे स्टेशनोंपर खुफिया मेरा टिकट देखने आते और नंबर वगैरा लेते। मैं तो वे जो सवाल पूछते जवाब तुरंत दे देता । इससे साथी मुसाफिरोंने समझा कि मैं कोई सीधासादा साधु या फकीर हूं । जब दो-चार स्टेशनपर खुफिया आये तो वे मुसाफ़िर
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