________________
अध्याय १२ : नीलका दाग
४११ 'तीन कठिया' । ___मैं यह कह देना चाहता हूं कि चंपारनमें जानेके पहले मैं उसका नामनिशान नहीं जानता था। यह खयाल भी प्रायः नहींके बराबर ही था कि वहां नीलकी खेती होती है । नीलकी गोटियां देखी थीं; परंतु मुझे यह बिलकुल पता म था कि वै पारनमें बनती थीं और उनके लिए हजारों किसानोंको वहां दुःख उठाना पड़ता था ।
राजकुमार शुक्ल नामके एक किसान चंपारन में रहते थे। उनपर नीलकी खेतीके सिलसिले में बड़ी बुरी बीती थी। यह दुःख उन्हें खल रहा था और उसी के फलस्वरूप सबके लिए इस नीलके दागको धो डालनेका उत्साह उनमें पैदा हुआ था।
जब मैं कांग्रेसमें लखनऊ गया था, तब इस किसानने मेरा पल्ला पकड़ा। "वकीलबाब आपको सब हाल बतायेंगे"---यह कहते हुए चंपारन चलनेका निमंत्रण मुझे देते जाते थे।
यह वकीलबाबू और कोई नहीं, मेरे चंपारनके प्रिय साथी, बिहारके सेवा-जीवनके प्राण, बृजकिशोरबाबू ही थे। उन्हें राजकुमार शुक्ल मेरे डेरेमें लाये। वह काले अलपकेका अचकन, पतलून वगैरा पहने हुए थे। मेरे दिलपर उनकी कोई अच्छी छाप नहीं पड़ी। मैंने समझा कि इस भोले किसानको लूटनेवाले कोई वकील होंगे ।।
मैंने उनसे चंपारनकी थोड़ी-सी कथा सुनली और अपने रिवाजके मुताबिक जवाब दिया-- "जबतक मैं खुद जाकर सब हाल न देख लूं तबतक मैं कोई राय नहीं दे सकता। आप कांग्रेसमें इस विषयपर बोलें; किंतु मुझे तो अभी छोड़ ही दीजिए।" राजकुमार शुक्ल तो चाहते थे कि कांग्रेसकी मदद मिले। चंपारनके विषयमें कांग्रेस में बृजकिशोरबाबू बोले और सहानुभूतिका एक प्रस्ताव पास हुआ।
राजकुमार शुक्लको इससे खुशी हुई; परंतु इतने हीसे उन्हें संतोष न हुआ। वह तो खुद चंपारनके किसानों के दुःख दिखाना चाहते थे। मैंने कहा" मैं अपने भ्रमणमें चंपारनको भी ले लूंगा, और एक-दो दिन वहांके लिए दे दूगा।" उन्होंने कहा- “एक दिन काफी होगा, अपनी नजरोंसे देखिए तो
सही ।"