________________
अध्याय १५ : मुकदमा वापस
४२१
ऐसा करना मुझे उन लोगोंके प्रति, जिनके कारण मैं यहां आया हूं, अपने कर्तव्यका घात करना भालूम हुआ। मैं समझता हूं कि मैं उन लोगोंके बीच रहकर ही उनकी भलाई कर सकता हूं। इस कारण मैं स्वेच्छासे इस स्थानसे नहीं जा सकता था। ऐसे धर्म-संकटकी दशामें म केवल यही कर सकता था कि अपनेको हटानेकी सारी जिम्मेदारी शासकोंपर छोड़ दूं। मैं भलीभांति जानता हूं कि भारतके सार्वजनिक जीवनमें मेरी जैसी प्रतिष्ठा रखनेवाले लोगोंको अपने किसी कार्य के द्वारा आदर्श उपस्थित करनेमें बहुत ही सचेत रहना चाहिए। मेरा दृढ़ विश्वास है कि आज जिस अटपटी स्थिति में हम लोग हैं उसमें मुझ जैसी स्थितिके स्वाभिमानी व्यक्तिके पास दूसरा कोई अच्छा व सम्मानपूर्ण मार्ग नहीं है, सिवा इसके कि उस हुक्मका अनादर करे व उसके बदले जो सजा मिले उसे चुपचाप सह ले । मैंने जो बयान दिया है, वह इसलिए नहीं है कि जो दंड मुझे मिलनेवाला है, वह कम किया जाय; बल्कि इस बातको दिखलानेके लिए कि मैंने जो सरकारी आज्ञाकी अवज्ञा की है वह कानूनन स्थापित सरकारका अपमान करनेके इरादेसे नहीं, बल्कि इस कारणसे कि मैंने उससे भी उच्चतर आज्ञा--अपनी अन्तरात्माको आज्ञा--का पालन करना उचित समझा है।"
अब मुकदमेकी सुनवाई मुल्तवी रखनेका तो कुछ कारण ही नहीं रह गया था; परंतु मजिस्ट्रेट या सरकारी वकील इस परिणामकी आशा नहीं रखते थे। अतएव सजाके लिए अदालतने फैसला मुल्तवी रक्खा। मैंने वाइसरायको तार द्वारा सब हालतकी सूचना दे दी थी, पटना भी तार दे दिया था। भारतभषण पंडित मालवीयजी वगैरा को भी तार द्वारा समाचार भेज दिया था। अब सजा सुनने के लिए अदालतमें जानेका समय आनेके पहले ही मुझे मजिस्ट्रेटका हुक्म मिला कि लाट साहबके हुक्मसे मुकदमा उठा लिया गया है और कलेक्टरकी चिट्ठी मिली कि आप जो कुछ जांच करना चाहें, शौकसे करें और उसमें जो कुछ मददु सरकारी कर्मचारियोंकी ओरसे लेना चाहें, लें। ऐसे तत्काल और शुभ परिणामकी आशा हममेंसे किसीने नहीं की थी।
मैं कलेक्टर मि० हेकॉकसे मिला। वह भला आदमी मालूम हुमा और