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आत्म-कथा : भाग ५
बहुत अच्छी तरह चल निकला और उनका आत्म-विश्वास बढ़ा । उन्हें अपने काममें रस भी आने लगा । अवंतिकाबाईकी पाठशाला आदर्श बन गई। उन्होंने अपनी पाठशालामें जीवन डाल दिया। वह इस कामको जानती भी खूब थीं। इन बहनोंकी मार्फत देहातके स्त्री-समाजमें भी हमारा प्रवेश हो गया था ।
परंतु मुझे पढ़ाईतक ही न रुक जाना था। गांवोंमें गंदगी बेहद थी। रास्तों और गलियोंमें कूड़े और कंकरका ढेर, कुत्रोंके पास कीचड़ और बदबू, प्रांगन इतने गंदे कि देखा न जाता था। बड़े-बूढ़ोंको सफाई सिखानेकी जरूरत थी। चंपारनके लोग बीमारियोंके शिकार दिखाई पड़ते थे। इसलिए जहांतक हो सके उनका सुधार करने और इस तरह लोगोंके जीवनके प्रत्येक विभागमें प्रवेश करनेकी इच्छा थी।
इस काममें डाक्टरकी सहायताकी जरूरत थी। इसलिए मैंने गोखलेकी समितिसे डाक्टर देवको भेजनेका अनुरोध किया। उनके साथ मेरा स्नेह तो पहले ही हो चुका था। छः महीनेके लिए उनकी सेवाका लाभ मिला। यह तय हुआ कि उनकी देख-रेखमें शिक्षक और शिक्षिका सुधारका काम करें।
इनके सबके साथ याह बात तय पाई थी कि इनमेंसे कोई भी निलहोंके शिकायतोंके झगड़े में न पड़ें। राजनैतिक बातोंको न छुएं। जो शिकायत लावें उनको सीधा मेरे पास भेज दें। कोई भी अपने क्षेत्र और कामको छोड़कर एक कदम इधर-उधर न हों। चंपारनके मेरे इन साथियोंका नियम पालन अद्भुत था। मुझे ऐसा कोई अवसर याद नहीं आता कि जब किसीने भी नियमों व हिदायतोंका उल्लंघन किया हो ।
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ग्राम-प्रवेश बहुत करके हर पाठशालामें एक पुरुष और एक स्त्रीकी योजना की थी। उन्हींकी मार्फत दवा और सुधारके काम करनेका निश्चय किया था। स्त्रियोंके द्वारा स्त्री-समाजमें प्रवेश करना था। दवाका काम बहुत आसान कर दिया था। अंडीका तेल, कुनैन और मरहम--- इतनी चीजें हर पाठशालामें रक्खी गई थीं।