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आत्म-कथा : भाग ५
दिलावें तो मैं रोज नहाने और कपड़े धोने और बदलने के लिए तैयार हूं।" ऐसे झोंपड़े हिंदुस्तान में इने-गिने नहीं हैं । असंख्य झोंपड़े ऐसे मिलेंगे जिनमें साजसामान, संदूक -पिटारा, कपड़े-लत्ते नहीं होते और असंख्य लोग उन्हीं कपड़ोंपर अपनी जिंदगी निकालते हैं जो वे पहने होते हैं ।
एक दूसरा अनुभव भी लिखने लायक है। चंपारनमें बांस और घासकी कमी नहीं है । लोगोंने भी भीतिहरवामें पाठशालाका जो छप्पर बांस और घासका बनाया था, किसीने एक रातको उसे जला डाला । शक गया आस-पास के निलहे लोगोंके श्रादमियोंपर | दुबारा घास और बांसका मकान बनाना ठीक न मालूम हुआ । यह पाठशाला श्री सोमण और कस्तूरबाईके जिम्मे थी । श्री सोमणने ईंटका पक्का मकान बनाने का निश्चय किया और वह खुद उसके बनाने में लग गये । दूसरों पर भी उसका रंग चढ़ा और देखते-देखते ईंटोंका मकान खड़ा हो गया और फिर मकानके जलनेका डर न रहा ।
इस तरह पाठशाला, स्वच्छता, सुधार और दवाके कामोंसे लोगों में स्वयंसेवकों के प्रति विश्वास और आदर बढ़ा और उनके मनपर अच्छा असर हुआ ।
परंतु मुझे दुःख के साथ कहना पड़ता है कि इस कामको कायम करने की मेरी मुराद बनाई । जो स्वयं सेवक मिले थे वे खास समय तक के लिए मिले थे । दूसरे नये स्वयंसेवक मिलने में कठिनाइयां पेश आईं और बिहारसे इस काम के लिए योग्य स्थायी सेवक न मिल सके। मुझे भी चंपारनका काम खतम होनेके बाद दूसरा काम जो तैयार हो रहा था, घसीट ले गया । इतना होते हुए भी छः मास के कामने इतनी जड़ जमा ली कि एक नहीं तो दूसरे रूपमें उसका असर आजतक कायम है ।
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उज्ज्वल पक्ष
एक तरफ तो पिछले अध्याय में वर्णन किये अनुसार समाज सेवा के काम चल रहे थे और दूसरी ओर लोगोंके दुःखकी कथायें लिखते रहनेका काम दिन