________________
४२४
आत्म-कथा : भाग ५
धनकी भिक्षा कैसे मांग सकते हैं ? और मेरा यह दृढ़ निश्चय था कि चंपारनकी रैय्यतसे एक कौड़ीन लेना चाहिए। यदि ऐसा करते तो उसका उल्टा अर्थ होता। यह भी निश्चय था कि इस जांचके लिए भारतवर्ष में भी आम लोगोंसे चंदा न करना चाहिए। ऐसा करनेसे इस जांचको राष्ट्रीय और राजनैतिक स्वरूप प्राप्त हो जाता। बंबईसे मित्रोंने १५०००) सहायता भेजनेका तार दिया; पर उनकी सहायता मैंने सधन्यवाद अस्वीकार कर दी। यह सोचा था कि चंपारनके बाहरसे, परंतु बिहारके ही हैसियतदार और सुखी लोगोंसे ही बृजकिशोरबाबूका मंडल जितनी सहायता प्राप्त कर सके उतनी ले लूं और शेष रकम मैं डाक्टर प्राणजीवनसे मंगा लू । डाक्टर मेहताने लिखा कि जितनी आवश्यकता हो मंगा लीजिएगा। इससे हम रुपये-पैसेके बारेमें निश्चित हो गए। गरीबीके साथ भरसक कम खर्च करके यह आंदोलन चलाना था। इसलिए बहुत रुपयोंकी आवश्यकता न थी। और दरहकीकत जरूरत पड़ी भी नहीं। मेरा खयाल है कि सब मिलाकर दो-तीन हजारसे ज्यादा खर्च न हुआ होगा। और मुझे याद है कि जितना रुपया इकट्ठा किया था उसमेंसे भी पांचसौ या हजार बच गया था।
शुरूमें वहां हमारी रहन-सहन बड़ी विचित्र थी। और मेरे लिए तो वह रोज हंसी-मजाकका विषय हो गई थी। इस वकील-मंडलमें हरेकके पास एक नौकर रसोइया होता । हरेककी अलग रसोई बनती। रातके बारह बजे तक भी वे लोग खाना खाते । ये महाशय खर्च वगैरा तो सब अपना ही करते थे; फिर भी मेरे लिए यह रहन-सहन एक आफत थी। अपने इन साथियोंके पास मेरी स्नेह-गांठ ऐसी मजबूत हो गई थी कि हमारे दरमियान कभी गलत-फहमी न होने पाती थी। मेरे शब्द-वाणोंको वे प्रेमसे झेलते। अंतको यह तय पाया कि नौकरोंको छुट्टी दे दी जाय, सब एक-साथ खाना खावें और भोजनके नियमोंका पालन करें। उसमें सभी निरामिषाहारी न थे और तरह-तरहकी अलग रसोई बनानेका इंतजाम करनेसे खर्च बढ़ता था। इससे यही निश्चय किया गया कि निरामिष भोजन ही पकाया जाय और एक ही जगह सबकी रसोई बनाई जाय । भोजन भी सादा ही रखनेपर जोर दिया जाता था। इससे खर्च बहुत कम पड़ा, हम लोगोंके काम करने की सामर्थ्य बढ़ी, और समय भी बच गया।
हमें अधिक शक्ति बचानेकी आवश्यकता भी थी, क्योंकि किसानोंके