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अध्याय १० : कसौटीपर
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मैं ही उनसे मिलने के लिए गया। मेरे हाथमें १३,०००) के नोट रखकर वह विदा हो गये। इस मददकी मैंने बिलकुल आशा न की थी। मदद देनेका यह तरीका भी नया ही देखा। उन्होंने आश्रममें इससे पहले कभी पैर न रक्खा था। मुझे ऐसा याद पड़ता है कि मैं उनसे एक बार पहले भी मिला था। न तो वह आश्रमके अंदर आये, न कुछ पूछा-ताछा। बाहरसे ही रुपया देकर चलते बने। इस तरह का यह पहला अनुभव मुझे था। इस मददसे अछूतोंके मुहल्ले में जानेका विचार स्थगित रहा ; क्योंकि लगभग एक वर्षके खर्चका रुपया मुझे मिल गया था।
परंतु बाहरकी तरह आश्रमके अंदर भी खलबली मची। यद्यपि दक्षिण अफ्रीकामें अछूत वगैरा मेरे यहां आते रहते, और खाते थे, परंतु यहां अछूत कुटुंबका आना और आकर रहना पत्नीको तथा दूसरी स्त्रियोंको पसंद न हुआ। दानीबहनके प्रति उनका तिरस्कार तो नहीं, पर उदासीनता मेरी सूक्ष्म अांखें और तीक्ष्ण कान , जो ऐसे विषयोंमें खासतौरपर सतर्क रहते हैं, देखते और सुनते थे। आर्थिक सहायताके अभावसे न तो मैं भयभीत हुआ, न चिंता-ग्रस्त ही, परंतु यह भीतरी क्षोभ कठिन था। दानीबहन मामूली स्त्री थी। दूधाभाईकी पढ़ाई भी मामूली थी; पर वह ज्यादा समझदार थे। उनका धीरज मुझे पसंद आया । कभी-कभी उन्हें गुस्सा आ जाता; परंतु आमतौर पर उनकी सहनशीलताकी अच्छी ही छाप मुझपर पड़ी है। मैं दूधाभाईको समझाता कि छोटे-छोटे अपमानोंको हमें पी जाना चाहिए। वह समझ जाते और दानीबहन को भी सहन करनेकी प्रेरणा करते ।
इस कुटुंबको आश्रममें रखकर अाश्रमने बहुत सबक सीखे हैं । और आरंभ-कालमें ही यह बात साफतौरसे स्पष्ट हो जानेसे कि आश्रम में अस्पृश्यताके लिए जगह नहीं है, आश्रमकी मर्यादा बंध गई और इस दिशामें उसका काम बहुत सरल हो गया। इतना होते हुए भी, आश्रमका खर्च बढ़ते जाते हुए भी, ज्यादातर सहायता उन्हीं हिंदुओंकी तरफसे मिलती आ रही है जो कट्टर माने जाते हैं यह यह बात स्पष्ट रूपसे शायद इसी बातको सूचित करती है कि अस्पृश्यताकी जड़ अच्छी तरह हिल गई है । इसके दूसरे प्रमाण तो बहुतेरे हैं, परंतु जहां अछूतके है साथ खानपानमें परहेज नहीं रक्खा जाता वहां भी वे हिंदू-भाई मदद करें, जा अपने को सनातनी मानते हैं, तो यह प्रमाण न-कुछ नहीं समझा जा सकता