Book Title: Atmakatha
Author(s): Mohandas Karamchand Gandhi, Gandhiji
Publisher: Sasta Sahitya Mandal Delhi

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Page 419
________________ ४०२ आत्म-कथा : भाग ५ अहमदाबादपर मेरी नजर ठहर गई थी। मैं मानता था कि गुजराती होने के कारण मैं गुजराती भाषाके द्वारा देशकी अधिक-से-अधिक सेवा कर सकंगा। अहमदाबाद पहले हाथ-बुनाईका बड़ा भारी केंद्र था, इससे चरखेका काम यहां अच्छी तरह हो सकेगा; और गुजरातका प्रधान नगर होनेके कारण यहांके धनाढ्य लोग धन-द्वारा अधिक सहायता दे सकेंगे, यह भी खयाल था । . अहमदाबादके मित्रोंके साथ जब आश्रमके विषयमें बातचीत हुई तो अस्पृश्योंके प्रश्नकी भी चर्चा उनसे हुई थी। मैंने साफ तौरपर कहा था कि यदि कोई योग्य' अंत्यज भाई आश्रममें प्रविष्ट होना चाहेंगे तो मैं उन्हें अवश्य आश्रममें लूंगा । "आपकी शर्तोंका पालन कर सकने वाले अंत्यज ऐसे कहां रास्तेमें पड़े हुए हैं ? " एक वैष्णव मित्रने ऐसा कहकर अपने मनको संतोष दे लिया और अंतको अहमदाबादमें बसने का निश्चय हुआ । . . . अब हम मकानकी तलाश करने लगे। श्री जीवनलाल बैरिस्टरका मकान, जो कोचरबमें है, किरायेपर लेना तय पाया। वही मुझे अहमदाबादमें बसानेवालोंमें अग्रणी थे । - इसके बाद प्राश्रमका नाम रखनेका प्रश्न खड़ा हुआ । मित्रोंसे मैंने मशवरा किया। कितने ही नाम आये। सेवाश्रम, तपोवन इत्यादि नाम सुझाये गये। सेवाश्रम नाम हम लोगोंको पसंद आता था, परंतु उससे सेवाकी पद्धतिका परिचय नहीं होता था। तपोवन नाम तो भला स्वीकृत कैसे हो सकता था ? क्योंकि यद्यपि तपश्चर्या हम लोगोंको प्रिय थी, फिर भी यह नाम हम लोगोंको अपने लिए भारी मालूम हुआ। हम लोगोंका उद्देश्य तो था सत्यकी पूजा, सत्यकी शोध करना, उसीका आग्रह रखना और दक्षिण अफ्रीकामें जिस पद्धतिका उपयोग हम लोगोंने किया था, उसीका परिचय भारतवासियोंको कराना, एवं हमें यह भी देखना था कि उसकी शक्ति और प्रभाव कहांतक व्यापक हो सकता है। इसलिए मैंने और साथियोंने 'सत्याग्रहाश्रम' नाम पसंद किया। उसमें सेवा और सेवा-पद्धति दोनोंका भाव अपने-आप आ जाता था। आश्रमके संचालनके लिए नियमावलीकी आवश्यकता थी, इसलिए नियमावली बनाकर उसपर जगह-जगहसे रायें मंगवाई गईं। बहुतेरी सम्मतियों

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