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आत्म-कथा : भाग ५
कि समिति के आदर्श और उसकी कार्यप्रणाली मुझसे भिन्न थी । इसलिए वे
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दुविधा थे कि मुझे सदस्य होना चाहिए या नहीं । गोखले की यह मान्यता थी कि अपने आदर्शपर दृढ़ रहने की जितनी प्रवृत्ति मेरी थी उतनी ही दूसरोंके आदर्श की रक्षा करने और उनके साथ मिल जानेका स्वभाव भी था । उन्होंने कहा-- 'परंतु हमारे साथी श्रापके दूसरोंको निभा लेनेके इस गुणको नहीं पहचान पाये हैं। वे अपने आदर्शपर दृढ़ रहनेवाले स्वतंत्र और निश्चित विचारके लोग हैं। मैं आशा तो यही रखता हूं कि वे ग्रापको सदस्य बनाना मंजूर कर लेंगे; परंतु यदि न भी करें तो आप इससे यह तो हर्गिज न समझेंगे कि आपके प्रति उनका प्रेम या आदर कम है । अपने इस प्रेमको अखंडित रहने देने के लिए ही वे किसी तरहकी' जोखिम उठानेसे डरते हैं; परंतु आप समिति के बाकायदा सदस्य हों, या न हों, मैं तो आपको सदस्य मानकर ही चलूंगा । "
मैंने अपना संकल्प उनपर प्रकट कर दिया था । समितिका सदस्य बयान बनूं, एक ग्राश्रमकी स्थापना करके फिनिक्सके साथियोंको उसमें रखकर मैं बैठ जाना चाहता था । गुजराती होनेके कारण गुजरातके द्वारा सेवा करनेकी पूंजी मेरे पास अधिक होनी चाहिए, इस विचारसे गुजरात में ही कहीं स्थिर होने की इच्छा थी । गोखले को यह विचार पसंद आया और उन्होंने कहा --
" जरूर प्राश्रम स्थापित करो । सदस्योंके साथ जो बातचीत हुई है उसका फल कुछ भी निकलता रहे, परंतु आपको श्राश्रम के लिए धन तो मुझ ही से लेना है। उसे मैं अपना ही आश्रम समक्षूंगा ।
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यह सुनकर मेरा हृदय फूल उठा | चंदा मांगने की झंझटसे बचा, यह समझकर बड़ी खुशी हुई और इस विश्वाससे कि अब मुझे अकेले अपनी जिम्मेदारी - पर कुछ न करना पड़ेगा, बल्कि हरेक उलझनके समय मेरे लिए एक पथदर्शक यहां हैं, ऐसा मालूम हुआ मानो मेरे सिरका बोझ उतर गया ।
गोखलेने स्वर्गीय डाक्टर देवको बुलाकर कह दिया -- " गांधी का खाता अपनी समितिमें डाल लो और उनको अपने आश्रम के लिए तथा सार्वजनिक कामोंके लिए जो कुछ रुपया चाहिए, वह देते जाना ।
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मैं ना छोड़कर शांति निकेतन जानेकी तैयारी कर रहा था। अंतिम रातको गोखलेने खास मित्रोंकी एक पार्टी इस विधिसे की, जो मुझे रुचिकर होती ।