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अध्याय ४ : शांति-निकेतन एक-दो अध्यापक और कुछ विद्यार्थी शामिल हुए थे। ऐसे प्रयोगोंके फलस्वरूप सार्वजनिक अर्थात् बड़े भोजनालयको स्वावलंबी रखनेका प्रयोग शुरू हो सका था।
परंतु अंतको कुछ कारणोंसे यह प्रयोग बंद हो गया। मेरा यह निश्चित मत है कि थोड़े समयके लिए भी इस जग-विख्यात संस्थाने इस प्रयोगको करके कुछ खोया नहीं है और उससे जो-कुछ अनुभव हुए हैं वे उसके लिए उपयोगी साबित
मेरा इरादा शांति-निकेतनमें कुछ दिन रहनेका था; परंतु मुझे विधाता जबर्दस्ती वहांसे घसीट ले गया। मैं मुश्किलसे वहां एक सप्ताह रहा होऊँगा कि पूनासे गोखलेके अवसानका तार मिला। सारा शांति-निकेतन शोकमें डूब गया। मेरे पास सब मातम-पुरसीके लिए आये । वहांके मंदिरमें खास सभा हुई। उस समय वहांका गंभीर दृश्य अपूर्व था। मैं उसी दिन पूना रवाना हुा । साथमें पत्नी और मगनलालको लिया। बाकी सब लोग शांति-निकेतन में रहे ।
एंड्रूज बर्दवानतक मेरे साथ आये थे। उन्होंने मुझसे पूछा, "क्या अापको प्रतीत होता है कि हिंदुस्तानमें सत्याग्रह करनेका समय आवेगा ? यदि हां, तो कब ? इसका कुछ खयाल होता है ? " ... मैंने इसका उत्तर दिया-- “यह कहना मुश्किल है। अभी तो एक सालतक मैं कुछ करना ही नहीं चाहता। गोखलेने मुझसे वचन लिया है कि मैं एक सालतक भ्रमण करूं । किसी भी सार्वजनिक प्रश्नपर अपने विचार न बनाऊं, न प्रकट करूं। मैं अक्षरशः इस वचनका पालन करना चाहता हूं। इसके बाद भी मैं तबतक कोई बात न कहूंगा, जबतक किसी प्रश्नपर कुछ कहने की आवश्यकता न होगी। इसलिए मैं नहीं समझता कि अगले पांच वर्षतक सत्याग्रह करनेका कोई अवसर आवेगा ।"
यहां इतना कहना आवश्यक है कि 'हिंद स्वराज्य में मैंने जो विचार प्रदर्शित किये हैं गोखले उनपर हंसा करते और कहते थे, 'एक वर्ष तुम हिंदुस्तान में रहकर देखोगे तो तुम्हारे ये विचार अपने-आप ठिकाने लग जायंगे।'