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आत्म-कथा : भाग ५
तीसरे दर्जेकी फजीहत
बर्दवान पहुंचकर हम तीसरे दर्जेका टिकट लेना चाहते थे; पर टिकट लेने में बड़ी मुसीबत हुई। टिकट लेने पहुंचा तो जवाब मिला-- "तीसरे दर्जे के मुसाफिरके लिए पहलेसे टिकट नहीं दिया जाता।" तब स्टेशन-मास्टरके पास गया । मुझे भला वहां कौन जाने देता? किसीने दया करके बताया कि स्टेशनमास्टर वहां हैं। मैं पहुंचा। उनके पाससे भी वही उत्तर मिला । जब खिड़की खुली तब टिकट लेने गया; परंतु टिकट मिलना आसान नहीं था। हट्टे-कट्टे मुसाफिर मुझ-जैसोंको पीछे धकेलकर आगे घुस जाते। आखिर टिकट तो किसी तरह मिल गया । . गाड़ी आई। उसमें भी जो जबर्दस्त थे, वे घुस गये। उतरनेवालों और चढ़नेवालोंके सिर टकराने लगे और धक्का-मुक्की होने लगी। इसमें भला मैं कैसे शरीक हो सकता था ? इसलिए हम दोनों एक जगहसे दूसरी जगह जाते । सब जगहसे यही जवाब मिलता-- “ यहां जगह नहीं है।" तब मैं गार्ड के पास गया। उसने जवाब दिया-- “जगह मिले तो बैठ जाओ, नहीं तो दूसरी गाड़ीसे जाना।" मैंने नरमीसे उत्तर दिया- “पर मुझे जरूरी काम है।" गार्डको यह सुननेका वक्त नहीं था। अब मैं सब तरहसे हार गया। मगनलालसे कहा-- "जहां जगह मिल जाय, बैठ जानो।" और मैं पत्नीको लेकर तीसरे दर्जे के टिकटसे ही ड्यौढ़े दर्जे में घुसा। गार्डने मुझे उसमें जाते हुए देख लिया था। ....... आसनसोल स्टेशनपर गार्ड ड्योढ़े दर्जेका किराया लेने आया। मैंने कहा-- " अापका फर्ज था कि आप मुझे जगह बताते । वहां जगह न मिलनेसे मैं यहां बैठ गया। मुझे तीसरे दर्जेमें जगह दिलाइए तो मैं वहां जानेको तैयार हूं।" . गार्ड साहब बोले-- “मुझसे तुम दलील न करो। मेरे पास जगह नहीं है, किराया न दोगे तो तुमको गाड़ीसे उतर जाना होगा।"
___मुझे तो किसी तरह जल्दी पूना पहुंचना था। गार्डसे लड़नेकी मेरी हिम्मत नहीं थी। लाचार होकर मैंने किराया चुका दिया। उसने टेठ पूनालका