________________
अध्याय : लक्ष्मण झूला
"
३९९
करना चाहिए ।
जब मेरी उमर कोई दस वर्षकी रहीं होगी तब पोरबंदर में ब्राह्मणोंके जनेऊ से बंधी चाबियों की झंकार में सुना करता था और उसकी मुझे ईर्ष्या भी होती थी । मनमें यह भाव उठा करता कि मैं भी इसी तरह जनेऊ में चाबियां लटकाकर झंकार किया करूं तो अच्छा हो । काठियावाड़के वैश्य कुटुंबोंमें उस समय जनेऊ का रिवाज नहीं था। हां, नये सिरे से इस बातका प्रचार अलबत्ता हो रहा था कि द्विज-मात्रको जनेऊ अवश्य पहनना चाहिए। उसके फलस्वरूप गांधी - कुटुंब के कितने ही लोग जनेऊ पहनने लगे थे। जिन ब्राह्मणने हम दो-तीन सगे संबंधियों को राम - रक्षाका पाठ सिखाया था, उन्होंने हमें जनेऊ पहनाया । मुझे अपने पास चाबियां रखने का कोई प्रयोजन नहीं था । तो भी मैंने दो-तीन चाबियां लटका लीं। जब वह जनेऊ टूट गया तब उसका मोह उतर गया था या नहीं, यह तो याद नहीं पड़ता, परंतु मैंने नया जनेऊ फिर नहीं पहना ।
बड़ी उमरमें दूसरे लोगोंने फिर हिंदुस्तानमें तथा दक्षिण अफ्रीका में जनेऊ पहनाने का प्रयत्न किया था, परंतु उनकी दलीलोंका असर मेरे दिलपर नहीं हुआ । शूद्र यदि जनेऊ नहीं पहन सकता तो फिर दूसरे लोगोंको क्यों पहनना चाहिए ? जिस बाह्य चिह्नका रिवाज हमारे कुटुंबमें नहीं था उसे धारण करनेका एक भी सबल कारण मुझे नहीं दिखाई दिया। मुझे जनेऊसे अरुचि नहीं थी, परंतु उसे पहनने के कारणोंका प्रभाव मालूम होता था। हां, वैष्णव होनेके कारण मैं कंठी जरूर पहनता था । शिखा तो घर के बड़े-बूढ़े हम भाइयोंके सिरपर रखवाते थे, परंतु विलायत में सिर खुला रखना पड़ता था । गोरे लोग देखकर हंसेंगे और हमें जंगली समझेंगे, इस शर्मसे शिखा कटा डाली थी । मेरे भतीजे छगनलाल गांधी, जो दक्षिण अफ्रीका में मेरे साथ रहते थे, बड़े भावके साथ शिखा रख रहे थे; परंतु इस वहमसे कि उनकी शिखा वहां सार्वजनिक कामोंमें बाधा डालेगी, मैंने उनके दिलको दुखाकर भी छुड़ा दी थी। इस तरह शिखासे मुझे उस समय शर्म लगती थी ।
इन स्वामीजी से मैंने यह सब कथा सुनाकर कहा-
८८
'जनेऊ तो में धारण नहीं करूंगा; क्योंकि असंख्य हिंदू जनेऊ नहीं
पहनते हैं फिर भी वे हिंदू समझे जाते हैं, तो फिर मैं अपने लिए उसकी जरूरत