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आत्म-कथा : भाग ४
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चालाकी ?
मेरी इस सलाहके औचित्यके विषयमें मेरे मनमें बिलकुल संदेह न था ; परंतु इस बातकी मेरे मनमें जरूर हिचकिचाहट थी कि मैं इस मुकदमे में योग्यतापूर्वक बहस कर सकूँगा या नहीं। ऐसे जोखिमवाले मुकदमे में बड़ी अदालतमें मेरा बहस करनेके लिए जाना मुझे बहुत भयावह मालूम हुआ। मैं मनमें बहुत डरते और कांपते हुए न्यायाधीशोंके सामने खड़ा रहा। ज्योंही इस भूलकी बात निकली त्योंही एक न्यायाधीश कह बैठे-- ___“क्या यह चालाकी नहीं है ? "
यह सुनकर मेरी त्यौरी बदली। जहां चालाकीकी बूतक नहीं थी वहां उसका शक पाना मुझे असह्य मालूम हुआ। मैंने मनमें सोचा कि जहां पहलेसे ही न्यायाधीशका खयाल खराब है, वहां इस कठिन मामले में कैसे जीत होगी ?
पर मैंने अपने गुस्सेको दबाया और शांत होकर जवाब दिया--
"मुझे आश्चर्य होता है कि आप पूरी बातें सुननेसे पहले ही चालाकीका इलजाम लगाते हैं।"
"मैं इलजाम नहीं लगाता, सिर्फ अपनी शंका प्रकट करता हूं।" वह न्यायाधीश बोले । .
... "आपकी यह शंका ही मुझे तो इलजाम जैसी मालूम होती है। मेरी सब बातें पहले सुन लीजिए और फिर यदि कहीं शंकाके लिए जगह हो तो आप अवश्य शंका उठावें"-- मैंने उत्तर दिया ।
- "मुझे अफसोस है कि मैंने आपके बीचमें बाधा डाली। आप अपना स्पष्टीकरण कीजिए।" शांत होकर न्यायाधीश बोले ।
। मेरे पास स्पष्टीकरणके लिए पूरा-पूरा मसाला था। मामलेकी शुरूपातमें ही शंका उठ खड़ी हुई और मैं जजको अपनी दलीलका कायल कर सका। इससे मेरा हौसला बढ़ गया। मैंने उसे सब बातें ब्यौरेवार समझाई। जजने मेरी बात धीरजके साथ सुनी और अंतको वह समझ गये कि यह भूल महज भूल ही थी