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आत्म-कथा : भाग ४.
एक ही प्रसंगका स्मरण मुझे होता है कि जब मेरे मवक्किलकी जीत हो जानेके बाद मुझे ऐसा शक हुआ कि उसने मुझे धोखा दिया। मेरे अंतःकरणमें भी हमेशा यही भाव रहा करता कि यदि मेरे मवक्किलका पक्ष सच्चा हो तो उसकी जीत हो और झूठा हो तो उसकी हार हो । मुझे यह नहीं याद पड़ता कि मैंने अपनी फीसकी दर मामलेकी हार-जीतपर निश्चित की हो। मवक्किलकी हार हो या जीत, मैं तो हमेशा मिहनताना ही मांगता और जीत होने के बाद भी उसीकी आशा रखता। मवक्किलको भी पहले ही कह देता कि यदि मामला झूठा हो तो मेरे पास न आना। गवाहोंको बनानेका काम करनेकी आशा मुझसे न रखना । आगे जाकर तो मेरी ऐसी साख बढ़ गई थी कि कोई झूठा मामला मेरे पास लाता ही नहीं था। ऐसे मवक्किल भी मेरे पास थे जो अपने सच्चे मामले ही मेरे पास लाते और जिनमें जरा भी गंदगी होती तो वे दूसरे वकीलके पास ले जाते ।
___ एक ऐसा समय भी आया था कि जिसमें मेरी बड़ी कड़ी परीक्षा हुई। एक मेरे अच्छे-से-अच्छे. मवक्किलका मामला था। उसमें जमाखर्चकी बहुतेरी उलझनें थीं। बहुत समग्रसे मामला चल रहा था। कितनी ही अदालतोंमें उसके कुछ-कुछ हिस्से गये थे। अंतको अदालत द्वारा नियुक्त हिसाब-परीक्षक पंचोंके जिम्मे उसका हिसाब सौंपा गया था । पंचके ठहरावके अनुसार मेरे मवक्किलकी पूरी जीत होती थी'; परंतु उसके हिसाबमें एक छोटी-सी परंतु भारी भूल रह गई थी। जमानामेकी रकम पंचकी भूलसे उलटी लिख दी गई थी। विपक्षीने इस पंचके फैसलेको रद्द करनेकी दरख्वास्त दी थी। मेरे मवक्किलकी तरफसे मैं छोटा वकील था। बड़े वकीलने पंचकी भूल देख ली थी; परंतु उनकी राय यह थी कि पंचकी भूल कबूल करनेके लिए मवक्किल बाध्य नहीं था; उनकी यह साफ राय थी कि अपने खिलाफ जानेवाली किसी बातको मंजूर करने के लिए कोई वकील बाध्य नहीं है । पर मैंने कहा, इस मामलेकी भूल तो हमें कबूल करनी ही चाहिए । ..... बड़े वकीलने कहा-- "यदि ऐसा करें तो इस बातका पूरा अंदेशा है कि अदालत इस सारे फैसलेको रद्द कर दे और कोई भी समझदार वकील अपने मवक्किलको ऐसी जोखिममें नहीं डालेगा। मैं तो ऐसी जोखिम उठानेके लिए कभी तैयार न होऊंगा। यदि मामला उलट जाय तो मवक्किलको कितना खर्च