________________
अध्याय ४७ : मक्किल जेलसे कैसे बचा ?
३७
नहीं
वहां मैं मवक्किलको दूसरे वकीलोंके पास जानेको कहता अथवा यदि वे मुझे ही वकील बनाते तो अधिक अनुभवी वकीलकी सलाह लेकर काम करने की प्रेरणा करता । अपने इस शुद्ध भावकी बदौलत मैं मवक्किलका अखूट प्रेम और विश्वास संपादन कर सका था। बड़े वकीलोंकी फीस भी वे खुशी-खुशी देते थे ।
इस विश्वास र प्रेमका पूरा-पूरा लाभ मुझे सार्वजनिक कामों में मिला । पिछले अध्यायोंमें मैं यह बता चुका हूं कि दक्षिण अफ्रीका में वकालत करने में मेरा हेतु केवल लोक-सेवा था । इससे सेवा कार्य के लिए भी मुझे लोगों का विश्वास प्राप्त कर लेने की श्रावश्यकता थी । परंतु वहां के उदार हृदय भारतीय भाइयोंने फीस लेकर की हुई वकालतको भी सेवाका ही गौरव प्रदान किया और जब उन्हें उनके हकों के लिए जेल जाने और वहांके कष्टोंके सहन करने की सलाह मैंने दी तब उसका अंगीकार उनमें से बहुतोंने ज्ञानपूर्वक करनेकी अपेक्षा मेरे प्रति अपनी श्रद्धा और प्रेमके कारण ही अधिक किया था ।
यह लिखते हुए वकालत के समय की कितनी ही मीठी बातें कलम में भर रही हैं। सैकड़ों मक्किल मित्र बन गये, सार्वजनिक सेवामें मेरे सच्चे साथी बने और उन्होंने मेरे कठिन जीवनको रसमय बना डाला था ।
४७
वकिल जेल से कैसे बचा !
पारसी रुस्तमजीके नामसे इन अध्यायोंके पाठक भलीभांति परिचित हैं । पारसी रुस्तमजी मेरे मवक्किल और सार्वजनिक कार्य में साथी; एक ही साथ बने; बल्कि यह कहना चाहिए कि पहले साथी बने और बादको मवक्किल । उनका विश्वास तो मैने इस हदतक प्राप्त कर लिया था कि वह अपनी घरू और खानगी बातों में भी मेरी सलाह मांगते और उसका पालन करते । उन्हें यदि कोई बीमारी भी हो तो वह मेरी सलाहकी जरूरत समझते और उनकी और मेरी रहन-सहन में बहुत कुछ भेद रहनेपर भी वह खुद मेरे उपचार करते ।
मेरे इस साथीपर एक बार बड़ी भारी विपत्ति आ गई थी। हालांकि