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अध्याय ३२ : मास्टर साहब
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इसलिए मैंने सोचा कि इन जीवन-निर्माणकी जवाबदेही भरक सुमीको उठानी चाहिए ।
मेरी इस बहु दोष की ही। ये सब नवयुवक जन्म हीने मेरे पास नहीं रहे थे। पर पाये हुए थे । फिर सब एक-धर्म के भी नहीं थे। ऐसी स्थिति जो बालक-बालिका रह रहे उनका पिता को भी में उनके साथ कैसे न्याय कर सकता था ? परंतु मैंने कवित्वको हमेशा प्रम स्थान दिया है, और यह यह विचार की शिक्षाका परिचय चाहे जिस उम्र और चाहे जैसे वातावरण में परवरिश पाये बालक-बालिकाओंको थोड़ाबहुत कराया जा सकता है, इस लड़के-लड़कियोंके साथ में दिन-रात के रूप रहता था । सुचरित्रताको मैंने उनकी शिक्षाका भावार स्तंभ माना था । बुनियाद यदि मजबूत हैं तो दूसरी बातें बालकको समय पाकर खुद अथवा इतरोधी सहायता मिल जाती हैं। फिर भी में यह समझता था कि थोड़ा-बहुत घरज्ञान भी जरूर कराना चाहिए। इसलिए पढ़ाई शुरू की और उसने केलवेक तथा प्रागजी पाईकी सहायता ली। मैं वारीरिक शिक्षाकी भी
आप ही मिल रही थी; क्योंकि
तो उन्हें
गये थे । पाखाने लेकर खाना पकाने
था परंतु वह शिक्षा कर तो रखे ही नहीं की ही करते थे । मिलक
कान
नमें फलोंके वृक्ष बहुत थे। नई खेती भी करती थी । की ती का शौक था। वह खुद सरकारी प्रादर्श खेमें कुछ समय रहकर खेतीका काम सीखे हुए थे । रोज कुछ समयतक उन सब छोटे-बड़े लोगों को, जो रसोई के लगन होते, बनी काम करते जाना पड़ता था । इनमें वालकका एक बड़ा गया। बड़े पड़े खोदना, कवन करना, बोझ उठाकर के जाना इत्यादि काम उनका शरीर सुगठित होता रहता । उसमें उनको आनंद भी जाता था, जिससे उन्हें दूसरी कसरत या खेल की श्रावश्यकता नहीं रहती थी । काम करने में कुछ और कभी-कभी सब विद्यार्थी नखरे करते, काहिली भी कर जाते । बहुत बार में इन बातोंकी ओर आंख मूंद लिया करता । कितनी ही बार उनसे सख्ती से भी काम लेता । जब सख्ती करता और उन्हें देखता कि वे उकता उठे