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आत्म-कथा : भाग ४
वैराग्यभाव था । इसलिए मेरा खयाल है कि उन्होंने उनसे मेरी मुलाकात कराई। जिन दिनों उनसे मेरा परिचय हुआ उन दिनोंके उनके शौक और शाह खर्चीको देखकर मैं चौंक उठा था; परंतु पहली ही मुलाकात में मुझसे उन्होंने धर्मके विषयमें प्रश्न किया। उसमें बुद्ध भगवान् की बात सहज ही निकल पड़ी । तबसे हमारा संपर्क बढ़ता गया । वह इस हदतक कि उनके मनमें यह निश्चय हो गया कि जो काम में करूं वह उन्हें भी अवश्य करना चाहिए। वह अकेले थे । अकेले लिए मकान खर्च के अलावा लगभग १२०० ) रुपये मासिक खर्च करते थे । ठेठ यहां से तो इतनी सादगीपर श्रा गये कि उनका मासिक खर्च १२० ) रुपये हो गया। मेरे घर-बार बिखेर देने और जेलसे आनेके बाद तो हम दोनों एक साथ रहने लगे थे । उस समय हम दोनों अपना जीवन अपेक्षाकृत बहुत कड़ाईके साथ बिता रहे थे ।
दूधके संबंध में जब मेरा उनसे वार्तालाप हुआ तब हम शामिल रहते थे । एक बार मि० केलनब्रेकने कहा कि “जब हम दूधमें इतने दोष बताते हैं तो फिर उसे छोड़ क्यों न दें ? वह अनिवार्य तो है ही नहीं ।" उनकी इस रायको सुनकर मुझे बड़ा आनंद और श्राश्चर्य हुआ । मैंने तुरंत उनकी बातका स्वागत किया और हम दोनोंने टाल्स्टाय - फार्ममें उसी क्षण दूधका त्याग कर दिया । यह बात १९१२ की है ।
पर हमें इतने त्यागसे शांति न हुई । दूध छोड़ देनेके थोड़े ही समय बाद केबल फलपर रहनेका प्रयोग करनेका निश्चय किया । फलाहारमें भी धारणा यह रक्खी गई थी कि सस्ते से सस्ते फलसे काम चलाया जाय । हम दोनों आकांक्षा यह थी कि गरीब लोगोंके अनुसार जीवन व्यतीत किया जाय । हमने अनुभव किया कि फलाहारमें सुविधा भी बहुत होती है । बहुतांशमें चूल्हा सुलगाने की जरूरत नहीं होती । इसलिए कच्ची मूंगफली, केले, खजूर, नींबू और जैतून का तेल, यह हमारा मामूली खाना हो गया था ।
जो लोग ब्रह्मचर्य का पालन करनेकी इच्छा रखते हैं उनके लिए एक चेतावनी देने की आवश्यकता है । यद्यपि मैंने ब्रह्मचर्य के साथ भोजन और उपवासtet free संबंध बताया है, फिर भी यह निश्चित है कि उसका मुख्य प्राधार है. हमारा मन । मलिन मन उपवाससे शुद्ध नहीं होता, भोजनका उसपर असर