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आत्म-कथा : भाग ४
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करो, आपका मिजाज जानते हुए भी यह बात मेरे मुंहसे निकल गई । अव मैं तो दाल और नमक न खाऊंगी, पर ग्राप अपना वचन वापस ले लीजिए । यह तो मुझे भारी सजा दे दी ।
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मैंने कहा -- "तुम दाल और नमक छोड़ दो तो बहुत ही अच्छा होगा । मुझे विश्वास है कि उससे तुम्हें लाभ ही होगा, परंतु मैं जो प्रतिज्ञा कर चुका हूं वह नहीं टूट सकती । मुझे भी उससे लाभ ही होगा। हर किसी निमित्त से मनुष्य यदि संयमका पालन करता है तो इससे उसे लाभ ही होता है । इसलिए तुम इस बातपर जोर न दो; क्योंकि इससे मुझे भी अपनी आजमाइश कर लेनेका मौका मिलेगा और तुमने जो इनको छोड़नेका निश्चिय किया है, उसपर दृढ़ रहनेमें भी तुम्हें मदद मिलेगी । " इतना कहने के बाद तो मुझे मनानेकी आवश्यकता रह नहीं गई थी । " आप तो बड़े हठी हैं, किसीका कहा मानना आपने सीखा ही नहीं ।" यह कहकर वह आंसू बहाती हुई चुप हो रही ।
इसको मैं पाठकों सामने सत्याग्रह के तौरपर पेश करना चाहता हूं और मैं कहना चाहता हूं कि मैं इसे अपने जीवनकी मीठी स्मृतियों में गिनता हूं । इसके बाद तो कस्तूरबाईका स्वास्थ्य खूब सम्हलने लगा । अब यह नमक और दालके त्यागका फल है, या उस त्यागसे हुए भोजनके छोटे-बड़े परिवर्तनोंका फल था, या उसके बाद दूसरे नियमोंका पालन कराने की मेरी जागरूकताका फल था, या इस घटनाके कारण जो मानसिक उल्लास हुआ उसका फल था, यह मैं नहीं कह सकता । परंतु यह बात जरूर हुई कि कस्तूरबाईका सूखा शरीर फिर पनपने लगा । रक्तस्राव बंद हो गया और 'वैद्यराज' के नामसे मेरी साख कुछ बढ़ गई ।
खुद मुझपर भी इन दोनों चीजोंको छोड़ देनेका अच्छा ही असर हुआ । छोड़ देनेके बाद तो नमक या दाल खानेकी इच्छातक न रही । यों एक साल बीतते देर न लगी । इससे इंद्रियोंकी शांतिका अधिक अनुभव होने लगा और संयमकी वृद्धि की तरफ मन अधिक दौड़ने लगा। एक वर्ष पूरा हो जानेपर भी दाल और नमकका त्याग तो ठेठ देशमें आनेतक जारी रहा। हां, बीच में सिर्फ एक ही बार विलायत १९९४में, दाल और नमक खाया था; पर इस घटनाका तथा देशमें आनेके बाद इन चीजोंको शुरू करनेके कारणों का वर्णन पीछे करूंगा ।