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अध्याय ३४ : आत्मिक शिक्षा
पहले में उनका जी नहीं लगता था। जिस किसी दिन मकावट के कारण अथवा किसी दूसरी वजहले मैं मंद न होला, कथवा मेरी पढ़ाई नीसन होती, तो के देरी कही और सुनाई बातोंको चाबले मुलते और उसमें रस लेते । बीच-बीच में जो शंकाएं उनके मन में उनी उनसे मुझे उनकी कि अंदाजा लग जाता ।
विद्याथियोंके शरीर और मालकी तालीम देने की मोना आत्मापर संस्कार डालने में मुझे बहुत परिश्रम करना पड़ा। उनकी आत्माका विकास करने के लिए मैंने धार्मिक पुस्तकों का बहुत कम लहारा लिया था। मैं यह जानता था कि विद्यार्थियोंको अपने-अपने धोके मूल तत्वोंको समझ लेना चाहिए, अपनेअपने धर्म-ग्रंथोंका साधारण ज्ञान होना चाहिए। इसलिए मैंने उन्हें ऐसा ज्ञान प्राप्त करने की यथाशक्ति सुविधा कर दी थी; परंतु उसे में बौद्धिक शिक्षाका अंग मानता हूं। आत्माकी शिक्षा एक अलग ही यात है और यह बात मैने टॉल्स्टायआश्रममें बालकोंको पढ़ाना शुरू करने से पहले ही जान ली थी। यात्माके विज्ञान करने का अर्थ है 'चरित्र-निर्माण करना', 'ईश्वरका ज्ञान प्राप्त करना', 'आत्म-ज्ञान संपादन करना'। इस ज्ञानको प्राप्त करने में बालकोंको बहुत सहायता की आवश्यकता है और मैं मानता था कि उसके बिला दूसरा सब ज्ञान व्यर्थ है और हानिकारक भी हो सकता है। - हमारे समाजाने एक यह वहम बुम गया है कि मात्म-जान तो गनुष्यको चौथे पाचन यानी संभाल नाचमन मिलता है; परंतु मेरी समझमें जो लोग चौथे अाश्रमतक इस अमूल्य वस्तुको रोक सकते हैं उन्हें बान-शान तो नहीं मिलता, उलटे बुढ़ापा, और दूसरे रूपमें इससे भी अधिक दवा-जनक बचपन प्राप्त करके, वे पृथ्वीपर भार-रूप होकर जीते हैं। ऐसा अनुभव सब जगह पाया जाता है। १९११-१२में शायद इन विचारोंको में प्रदर्शित न कर सकता; परंतु मुझे यह बात अच्छी तरहसे मालूम है कि उस समय मेरे विचार इसी तरहके थे ।
अब सवाल यह है कि आत्मिक शिक्षा दी किस तरह जाय ? इसके