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अध्याय ३९ : धर्मकी समस्या
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क्रिया में इच्छासे या अनिच्छा से कुछ-न-कुछ हिंसा वह करता ही रहता है । यदि इस हिंसासे छूट जानेके वह महान् प्रयास करता हो, उसकी भावना में केवल अनुकंपा हो, वह सूक्ष्म जंतुका भी नाश न चाहता हो और उसे बचानेका यथाशक्ति प्रयास करता हो तो समझना चाहिए कि वह ग्रहिंसाका पुजारी है। उसकी प्रवृत्ति में निरंतर संयम की वृद्धि होती रहेगी, उसकी करुणा निरंतर बढ़ती रहेगी, परंतु इसमें कोई संदेह नहीं कि कोई भी देववारी बाह्य हिंसा से सर्वथा मुक्त नहीं हो सकता ।
फिर अहिंसा के पेटमें ही अद्वैत भावनाका भी समावेश है । और यदि प्राणिमात्रमें भेद-भाव हो तो एकके पापका असर दूसरेपर होता है और इस कारण भी मनुष्य हिंसासे सोलहों आना अछूता नहीं रह सकता । जो मनुष्य समाजमें रहता है वह, अनिच्छा से ही क्यों न हो, मनुष्य-समाजकी हिंसाका हिस्सेदार बनता है । ऐसी दशामें जब दो राष्ट्रोंमें युद्ध हो तो अहिंसाके अनुयायी व्यक्तिका यह धर्म है कि वह उस युद्धको रुकवाये । परंतु जो इस धर्मका पालन न कर सके, जिसे विरोध करनेकी सामर्थ्य न हो, जिसे विरोध करने का अधिकार न प्राप्त हुआ हो, वह युद्ध कार्य में शामिल हो सकता है और ऐसा करते हुए भी उसमेंसे अपनेको, अपने देशको और संसारको निकालने की हार्दिक कोशिश करता है ।
मैं चाहता था कि अंग्रेजी राज्यके द्वारा अपनी, अर्थात् अपने राष्ट्रकी, स्थितिका सुधार करूं । पर मैं तो इंग्लैंडमें बैठा हुआ इंग्लैंडकी नौ सेनासे सुरक्षित था । उस बलका लाभ इस तरह उठाकर मैं उसकी हिंसकतामें सीधे-सीधे भागी हो रहा था । इसलिए यदि मुझे इस राज्य के साथ किसी तरह संबंध रखना हो, इस साम्राज्य के झंडे के नीचे रहना हो तो या तो मुझे युद्धका खुल्लमखुल्ला विरोध करके जबतक उस राज्यकी युद्ध-नीति नहीं बदल जाय तबतक सत्याग्रह - शास्त्र के अनुसार उसका बहिष्कार करना चाहिए, ग्रथवा भंग करने योग्य कानूनोंका सविनय भंग करके जेलका रास्ता लेना चाहिए, या उसके युद्ध कार्य में शरीक होकर उसका मुकाबला करनेकी सामर्थ्य और अधिकार प्राप्त करना चाहिए । विरोधी शक्ति मेरे अंदर थी नहीं, इसलिए मैंने सोचा कि युद्धमें शरीक होनेका एक रास्ता ही मेरे लिए खुला था ।