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आत्म-कथा : भाग ४ शामको 'नेशनल लिबरल क्लब में हम उनसे मिलने गये। उन्होंने तुरंत पूछा-- "क्यों डाक्टरकी सलाहके अनुसार ही चलनेका निश्चय किया है न ?"
मैंने धीरेसे जवाब दिया--- "और सब बातें मैं मान लूंगा, परंतु आप एक बातपर जोर न दीजिएगा। दूध और दूधकी बनी चीजें और मांस इतनी चीजें मैं न लूंगा। और इनके न लेनेसे यदि मौत भी आती हो तो मैं समझता हूं उसका स्वागत कर लेना मेरा धर्म है ।”
"आपने यह अंतिम निर्णय कर लिया है ? " गोखलेने पूछा ।
" मैं समझता हूं कि इसके सिवा मैं आपको दूसरा उत्तर नहीं दे सकता । मैं जानता हूं कि इससे आपको दुःख होगा। परंतु मुझे क्षमा कीजिएगा।" मैंने जवाब दिया ।
गोखलेने कुछ दुःख से, परंतु बड़े ही प्रेमसे कहा-- "आपका यह निश्चय मुझे पसंद नहीं । मुझे इसमें धर्मकी कोई बात नहीं दिखाई देती। पर अब मैं इस बातपर जोर न दूगा।" यह कहते हुए जीवराज मेहताकी ओर मुखातिब होकर उन्होंने कहा-- "अब गांधी को ज्यादा दिक न करो। उन्होंने जो मर्यादा बांध ली है उसके अंदर इन्हें जो-जो चीजें दी जा सकती हैं वहीं देनी चाहिए।"
डाक्टरने अपनी अप्रसन्नता प्रकट की; पर वह लाचार थे। मुझे मूंगका पानी लेनेकी सलाह दी। कहा--- "उसमें हींगका बघार दे लेना।" मैंने इसे मंजूर कर लिया। एक-दो दिन मैंने वह पानी लिया भी; परंतु इससे उलटे मेरा दर्द बढ़ गया। मुझे वह मुआफिक नहीं हुआ। इससे मैं फिर फलाहार पर प्रा गया। ऊपरके इलाज तो डाक्टरने जो मुनासिब समझे किये ही। उससे अलबत्ता कुछ पाराम था। परंतु मेरी इन मर्यादानोंपर वह बहुत बिगड़ते। इसी बीच गोखले देस (भारतवर्ष) को रवाना हुए, क्योंकि वह लंदनका अक्तूबर-नवंबरका कोहरा सहन नहीं कर सके ।
इलाज क्या किया ? पसलीका दर्द मिट नहीं रहा था। इससे मेरी चिंता बढ़ी। पर मैं इतना जरूर जानता था कि दवा-दारूसे नहीं, बल्कि भोजनमें परिवर्तन करनेसे