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आत्म-कथा : भाग ४
ये पतित लोग मेरी व्यथाको तभी समझ सकेंगे, जब मैं इस पतनके लिए कुछ प्रायश्चित्त करूंगा। इसीसे इन्हें अपने दोषोंका ज्ञान होगा और उसकी गंभीरताका कुछ अंदाज मिलेगा। इस कारण मैंने सात दिनके उपवास और साढ़े चार मासतक एकासना करने का विचार किया। मि० केलनबेकने मुझे रोकनेकी बहुत कोशिश की, पर उनकी न चली। अंतको उन्होंने प्रायश्चित्तके औचित्यको माना और अपने लिए भी मेरे साथ व्रत रखनेपर जोर दिया। उनके निर्मल प्रेमको मैं न रोक सका। इस निश्चयके बाद ही तुरंत मेरा हृदय हलका हो गया, मुझे शांति मिली। दोष करनेवालोंपर जो-कुछ गुस्सा आया था वह दूर हुआ और उनपर मनमें दया ही आती रही।
इस तरह ट्रेनमें ही अपने हृदयको हलका करके मैं फिनिक्स पहुंचा। पूछ-ताछकर जो-कुछ और बातें जाननी थीं वे जान लीं। यद्यपि इस मेरे उपवाससे सबको बहुत कष्ट हुआ, पर उससे वातावरण शुद्ध हुआ। पापकी भयंकरताको सबने समझा और विद्यार्थी-विद्यार्थिनियोंका और मेरा संबंध अधिक मजबूत और सरल हुआ ।
___ इस दुर्घटनाके सिलसिले में ही, कुछ समयके बाद, मुझे फिर चौदह उपवास करनेकी नौबत आई थी और मैं मानता हूं कि उसका परिणाम आशासे भी अधिक अच्छा निकला। परंतु इन उदाहरणोंसे मैं यह नहीं सिद्ध करना चाहता कि शिष्योंके प्रत्येक दोषके लिए हमेशा शिक्षकोंको उपवासादि करना ही चाहिए। पर मैं यह जरूर मानता हूं कि मौके-मौकेपर ऐसे प्रायश्चित्त-रून उपवासके लिए अवश्य स्थान है। किंतु उसके लिए विवेक और अधिकारकी आवश्यकता है । जहां शिक्षक और शिष्य में शुद्ध प्रेम-बंधन नहीं, जहां शिक्षकको अपने शिष्यके दोषोंसे सच्ची चोट नहीं पहुंचती, जहां शिष्यके मनमें शिक्षकके प्रति आदर नहीं, वहां उपवास निरर्थक है और शायद हानिकारक भी हो। परंतु ऐसे उपवास या एकासनेके विषयमें भले ही कुछ शंका हो; किंतु शिष्यके दोषोंके लिए शिक्षक थोड़ा-बहुत जिम्मेदार जरूर है, इस विषयमें कुछ भी संदेह नहीं ।
.ये सात उपवास और साढ़े चार मासके एकासने हमें कठिन न मालूम हुए। उन दिनों मेरा कोई भी काम बंद या मंद नहीं हुआ था । उस समय मैं केवल फलाहार ही करता था। चौदह उपवासका अंतिम भाग मुझे खूब कदिन