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आत्म-कथा : भाग ४
के तौरपर इंग्लैंड में बैरिस्टरीकी तालीमके लिए भेजा था कि जिससे दक्षिण अफ्रीका में प्राकर मेरा स्थान ले लें । उनका खर्च डाक्टर प्राणजीवनदास मेहता देते थे । उनके और उनके मार्फत डॉक्टर जीवराज मेहता इत्यादिके साथ, जो विलायत में पढ़ रहे थे, इस विषयपर सलाह मशवरा किया । विलायत में उस समय जो हिंदुस्तानी लोग रहते थे उनकी एक सभा की गई और उसमें मैंने अपने विचार उपस्थित किये। मेरा यह मत हुआ कि विलायत में रहनेवाले हिंदुस्तानियों को इस लड़ाई में अपना हिस्सा देना चाहिए। अंग्रेज विद्यार्थी लड़ाईमें सेवा करनेका अपना निश्चय प्रकाशित कर चुके हैं। हम हिंदुस्तानियोंको भी इससे कम सहयोग न देना चाहिए। मेरी इस बात के विरोध में इस सभा में बहुतेरी दलीलें पेशकी गईं। कहा गया कि हमारी और अंग्रेजोंकी परिस्थितिमें हाथी-घोड़े जितना अंतर है-एक गुलाम दूसरा सरदार । ऐसी स्थितिमें गुलाम अपने प्रभुकी विपत्ति में उसे स्वेच्छा-पूर्वक कैसे मदद कर सकता है ? फिर जो गुलाम अपनी गुलामी मेंसे छूटना चाहता है उसका धर्म क्या यह नहीं कि प्रभुकी विपत्तिसे लाभ उठाकर अपना छुटकारा कर लेनेकी कोशिश करे ? पर यह दलील मुझे उस समय कैसे पट सकती थी ? यद्यपि मैं दोनों की स्थितिका महान् अंतर समझ सका था, फिर भी मुझे हमारी स्थिति बिलकुल गुलामकी स्थिति नहीं मालूम होती थी । उस समय मैं यह समझे हुए था कि अंग्रेजी शासन पद्धतिकी अपेक्षा कितने ही अंग्रेज अधिकारियोंका दोष अधिक था और उस दोषको हम प्रेमसे दूर कर सकते हैं । मेरा यह खयाल था कि यदि अंग्रेजोंके द्वारा और उनकी सहायता से हम अपनी स्थितिका सुधार चाहते हों तो हमें उनकी विपत्ति के समय सहायता पहुंचाकर अपनी स्थिति सुधारनी चाहिए । ब्रिटिश शासन पद्धतिको मैं दोषमय तो मानता था, परंतु आजकी तरह वह उस समय प्रसह्य नहीं मालूम होती थी ।
वाज जिस प्रकार वर्तमान शासन-पद्धतिपरसे मेरा विश्वास उठ गया है और आज मैं अंग्रेजी राज्यकी सहायता नहीं कर सकता, इसी तरह उस समय जिन लोगोंका विश्वास इस पद्धतिपरसे ही नहीं, बल्कि अंग्रेजी अधिकारियोंपर से भी उठ चुका था, वे मदद करनेके लिए कैसे तैयार हो सकते थे ?
उन्होंने इस समयको प्रजाकी मांगें जोरके साथ पेश करने और शासन में सुधार करनेकी प्रावाज उठानेके लिए बहुत अनुकूल पाया। किंतु मैंने इसे अंग्रेजों