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आत्म-कथा : भाग ४ मानना विलकुल भ्रमपूर्ण है। गीताके दूसरे अध्याय का यह श्लोक इस प्रमंगपर बहुत विचार करने योग्य ई--
विषया विविध निराहारस्थ देहिनः ।
रसघर्ज रलोऽप्यस्य परं दृष्ट्वा निकले। उपवासी के विषय ( उपापिनों में ) शमन हो जाते हैं; परंतु उनका रस नहीं जाता। रस तो इश्वर-दर्शन से ही-ईश्वर प्रसादसे ही शमन होते हैं।
इससे हम इस नतीजेपर पहुंचे कि उपवास नादि संघमीक मागज एक साधन के रूप में आवश्यक है; परंतु वही सब-कुछ नहीं है । और यदि शारीरिक उपवास के साथ मनका उपवास न हो तो उसकी परिणति दंभमें हो सकती है और वह हानिकारक साबित हो सकती है ।
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लास्टर साहब सत्याग्रहके इतिहासमें जो बात नहीं आ सकी अथवा आंशिक रूपमें आई है वही इन अध्यायोंमें लिखी जा रही है। इस बातको पाठक याद रक्खेंगे तो इन अध्यायोंका पूर्वापर संबंध वे समझ सकेंगे।
टॉलस्टाय-आश्रममें लड़कों और लड़कियोंके लिए कुछ शिक्षण-प्रबंध श्रावश्यक था। मेरे साथ हिंदू, मुसलमान, पारसी और ईसाई नवयुवक थे, और कुछ हिंदू लड़कियां भी थीं। इनके लिए खास शिक्षक रखना असंभव था और नुझे अनावश्यक भी भालूम हुआ। असंभव तो इसलिए था कि सुयोग्य हिंदुस्तानी शिक्षकोंका वहां अभाव था, और मिले भी तो काफी बेनके बिना डरवनसे २१ मील दूर कौन आने लगा ? मेरे पास रुपयोंकी बहुतायत नहीं थी और बाहर से भिनक बुलाना अनावश्यक माना; क्योंकि वर्तमान शिक्षा प्रणाली मुझे पसंद न थी और वास्तविक पद्धति क्या है, इसका मैंने अनुभव नहीं कर देखा था। इतना जानता था कि आदर्श स्थिति सच्ची शिक्षा माता-पिताकी देखरेखमें ही मिल सकती है। आदर्श स्थिति में बाह्य सहायता कम-से-कम होनी चाहिए। टॉल्स्टाय-आश्रम एक कुटुंब था और मैं उसमें पिताके स्थानपर था।