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अध्याय ३० : संयमकी ओर
नमक और दाल छुड़ानेके प्रयोग मैंने साथियोंपर खूब किये हैं और दक्षिण अफ्रीका में तो उसके परिणाम अच्छे ही आये थे। वैद्यककी दृष्टिसे इन दोनों चीजोंके त्यागके संबंधमें दो मत हो सकते हैं। पर संयमकी दृष्टि से तो इनके त्यागमें लाभ ही है, इसमें संदेह नहीं। भोगी और संयमीका भोजन और मार्ग अवश्य ही जुदा-जुदा होना चाहिए। ब्रह्मचर्य पालन करनेकी इच्छा करनेवाले लोग भोगीका जीवन विताकर ब्रह्मचर्यको कठिन और कितनी ही बार प्रायः अशक्य कर डालते हैं।
संयमकी भोर
पिछले अध्यायमें यह बात कह चुका हूं कि भोजनमें कितने ही परिवर्तन कस्तूरवाईकी बीमारीकी बदौलत हुए। पर अब तो दिन-दिन उसमें ब्रह्मचर्यकी दृष्टिसे परिवर्तन करता गया ।
पहला परिवर्तन हुआ दूधका त्याग । दूधमे इंद्रिय-विकार पैदा होते हैं, यह बात मैं पहले-पहल रायचंदभाईसे समझा था। अन्नाहार-संबंधी अंग्रेजी पुस्तकें पढ़नेसे इस विचारमें वृद्धि हुई। परंतु जबतक ब्रह्मचर्यका व्रत नहीं लिया था तबतक दूध छोड़ने का इरादा खास तौरपर नहीं कर सका था। यह बात तो मैं कभीसे समझ गया था कि शरीर-रक्षाके लिए दूधकी आवश्यकता नहीं है, पर उसका सहसा छूट जाना कठिन था। एक ओर मैं यह बात अधिकाधिक समझता ही जा रहा था कि इंद्रियदमनके लिए दूध छोड़ देना चाहिए कि दूसरी ओर कलकत्तासे ऐसा साहित्य मेरे पास पहुंचा जिसमें ग्वाले लोगोंके द्वारा गाय-भैंसोंपर होनेवाले अत्याचारों का वर्णन था। इस साहित्यका मुझपर बड़ा बुरा असर हुआ और उसके संबंधमें मैंने मि० केलनवेकसे भी बातचीत की ।
हालांकि मि० केलनबेकका परिचय में 'सत्याग्रहके इतिहास में करा चुका हूं और पिछले एक अध्यायमें भी उनका उल्लेख कर गया हूं; परंतु यहां उनके संबंध में दो शब्द अधिक कहने की आवश्यकता है। उनकी मेरी मुलाकात अनायास होगई थी। मि० खानके वह मित्र थे। मि० खानने देखा कि उनके अंदर गहरा