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आत्म-कथा : भाग ४
ही कम हैं और ऐसा करते हुए यदि अनेक शरीरोंकी आहुति देना पड़े तो भी हमें उसकी परवा न करनी चाहिए। पर अभी आज-कल उलटी गंगा बह रही है । नाशवान् शरीरको सुशोभित करने और उसकी आयुको बढ़ानेके लिए हम अनेक प्राणियोंका बलिदान करते हैं। पर यह नहीं समझते कि उससे शरीर और आत्मा दोनोंका हनन होता है। एक रोगको मिटाते हुए, इंद्रियोंके भोगोंको भोगनेका उद्योग करते हुए, हम नये-नये रोग पैदा करते हैं और अंतको भोग भोगनेकी शक्ति भी खो बैठते हैं। सबसे बढ़कर आश्चर्यकी बात तो यह है कि इस क्रियाको अपनी अांखोंके सामने होते हुए देखकर भी हम उसे देखना नहीं चाहते ।।
___ भोजनके प्रयोगोंका अभी मैं और वर्णन करना चाहता हूं; इसलिए उसका उद्देश्य और तद्विषयक मेरी विचार-सरणि पाठकोंके सामने रख देना आवश्यक था ।
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पत्नीकी दृढ़ता कस्तूरबाईपर तीन घातें हुई और तीनोंमें वह महज घरेलू इलाजसे बच गईं। पहली घटना तो तबकी है जब सत्याग्रह-संग्राम चल रहा था। उसको बार-बार रक्तस्राव हुआ करता । एक डाक्टर मित्रने नश्तर लगवानेकी सलाह दी थी। बड़ी आनाकानीके बाद वह नश्तरके लिए राजी हुई। शरीर बहुत क्षीण हो गया था । डाक्टरने बिना बेहोश किये ही नश्तर लगाया। उस समय उसे दर्द तो बहुत हो रहा था; पर जिस धीरजसे कस्तूरबाईने उसे सहन किया है उसे देखकर मैं दांतों तले अंगुली देने लगा। नश्तर अच्छी तरह लग गया। डाक्टर और उसकी धर्मपत्नीने कस्तूरबाईकी बहुत अच्छी तरह शुश्रूषा की।
यह घटना डरबनकी है। दो या तीन दिन बाद डाक्टरने मुझे निश्चित होकर जोहान्सबर्ग जानेकी छुट्टी दे दी। मैं चला भी गया; पर थोड़े ही दिनमें समाचार मिले कि कस्तूरबाईका शरीर बिलकुल सिमटता नहीं है और वह बिछौनसे उठ-बैठ भी नहीं सकती। एक बार बेहोश भी हो गई थी। डाक्टर जानते थे कि मझसे पूछे बिना कस्तूरबाईको शराब या मांस-दवामें अथवा