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आत्म-कथा : भाग ४
इसलिए इन प्रयोगोंके प्रसंगोंके क्रमको जो सज्जन अविच्छिन रखना चाहते हैं उन्हें चाहिए कि वे अब अपने सामने 'दक्षिण अफ्रीकाके इतिहास के उन अध्यायोंको रख लें।
भोजनके और प्रयोग
अब मुझे एक फिक्र तो यह लगी कि मन, कर्म और वचनसे ब्रह्मचर्यका । पालन किस प्रकार हो और दूसरी यह कि सत्याग्रह-संग्रामके लिए अधिक-सेअधिक समय किस तरह बचाया जाय और अधिक शुद्धि कैसे हो। इन दो फिक्रोंने मुझे अपने भोजनमें अधिक संयम और अधिक परिवर्तनकी प्रेरणा की। फिर जो परिवर्तन में पहले मुख्यतः आरोग्यकी दृष्टि से करता था वे अब धार्मिक दृष्टिसे होने लगे।
इसमें उपवास और अल्पाहारने अधिक स्थान लिया। जिनके अंदर विषय-वासना रहती है उनकी जीभ बहुत स्वाद-लोलुप रहती है। यही स्थिति मेरी भी थी। जननेंद्रिय और स्वादेंद्रियपर कब्जा करते हए मझे बहत विडंबना सहनी पड़ी है और अब भी मैं यह दावा नहीं कर सकता कि इन दोनोंपर मैंने पूरी विजय प्राप्त कर ली है । मैंने अपनेको अत्याहारी माना है। मित्रोंने जिसे मेरा संयम माना है उसे मैंने कभी वैसा नहीं माना । जितना अंकुश मैं अपनेपर रख सका हूं उतना यदि न रख सका होता तो मैं पशुसे भी गया-बीता होकर अबतक कभीका नाशको प्राप्त हो गया होता। मैं अपनी खामियोंको ठीक-ठीक जानता हूं और कह सकता हूं कि उन्हें दूर करनेके लिए मैंने भारी प्रयत्न किये हैं। और उसीसे मैं इतने सालतक इस शरीरको टिका सका हूं और उससे कुछ काम ले सका हूं ।
इस बातका भान होने के कारण और इस प्रकारकी संगति अनायास मिल जानेके कारण मैंने एकादशीके दिन फलाहार अथवा उपवास शुरू किये । जन्माष्टमी इत्यादि दूसरी तिथियोंपर भी उपवास करने लगा; परंतु संयमकी दृष्टिसे फलाहार और अन्नाहारमें मुझे बहुत भेद दिखाई न दिया । अनाजके नामसे हम जिन वस्तुओंको जानते हैं उनमें से जो रस मिलता है वही फलाहारसे