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अध्याय २५ : हृदय-मंथन
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कि इतने में कोई यह अफवाह लाया कि 'बलवा' शान्त हो गया है और अब हमें छुट्टी मिल जायगी। दूसरे ही दिन हमें घर जानेका हुक्म हुआ और थोड़े ही दिनों बाद हम सब अपने-अपने घर पहुंच गये। इसके कुछ ही दिन बाद गवर्नरने इस सेवाके निमित्त मेरे नाम धन्यवाद का एक खास पत्र भेजा ।
फिनिक्स में पहुंचकर मैंने ब्रह्मचर्य विषयक अपने विचार बड़ी तत्परता से छगनलाल, मगनलाल, वेस्ट इत्यादिके सामने रखे। सबको पसंद आये । सबने ब्रह्मचर्य की आवश्यकता समझी। परंतु सबको उसका पालन बड़ा कठिन मालूम हुआ । कितनोंने ही प्रयत्न करनेका साहस भी किया और मैं मानता हूं कि कुछ तो उसमें अवश्य सफल हुए हैं ।
मैंने तो उसी समय व्रत ले लिया कि आजसे जीवन पर्यंत ब्रह्मचर्यका पालन करूंगा । इस व्रतका महत्त्व और उसकी कठिनता मैं उस समय पूरी न समझ सुका था । कठिनाइयोंका अनुभव तो मैं बाज तक भी करता रहता हूं । साथ ही उस व्रतका महत्त्व भी दिन-दिन अधिकाधिक समझता जाता हूं । ब्रह्मचर्य - हीन जीवन मुझे शुष्क और पशुवत् मालूम होता है । पशु स्वभावतः निरंकुश है, मनुष्यका मनुष्यत्व इसी बात है कि वह स्वेच्छा से अपनेको अंकुश में रक्खे । ब्रह्मचर्यकी जो स्तुति धर्मग्रंथोंमें की गई है उसमें पहले मुझे प्रत्युक्ति मालूम होती थी । परंतु अब दिन-दिन वह अधिकाधिक स्पष्ट होता जाता है कि वह बहुत ही उचित और अनुभव सिद्ध है ।
वह ब्रह्मचर्य जिसके ऐसे महान् फल प्रकट होते हैं, कोई हंसी-खेल नहीं है, केवल शारीरिक वस्तु नहीं है ।
शारीरिक अंकुशसे तो ब्रह्मचर्यका श्रीगणेश होता है । परंतु शुद्ध ब्रह्मचर्यमें तो विचार तककी मलिनता न होनी चाहिए। पूर्ण ब्रह्मचारी स्वप्नमें भी बुरे विचार नहीं करता। जबतक बुरे सपने आया करते हैं, स्वप्तमें भी विकार - प्रबल होता रहता है तबतक यह मानना चाहिए कि अभी ब्रह्मचर्य बहुत अपूर्ण है ।
मुझे तो कायिक ब्रह्मचर्य के पालनमें भी महाकष्ट सहना पड़ा। इस समय तो यह कह सकता हूं कि मैं इसके विषय में निर्भय हो गया हूं; परंतु अपने विचारोंपर अभी पूर्ण विजय प्राप्त नहीं कर सका हूँ। मैं नहीं समझता