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आत्म-कथा : भाग ३
मेरी संकोचवृत्ति देखकर उन्होंने कहा---
" गांधी, तुम्हें तो इसी देश में रहना है, इसलिए ऐसी शरमसे काम न चलेगा । जितने लोगोंके संपर्क में आ सको, तुम्हें आना चाहिए। मुझे तुमसे कांग्रेसका काम लेना है |
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गोखले यहां जाने से पहिलेका, 'इंडिया क्लब' का, एक अनुभव यहां दे देता हूं ।
इन्हीं दिनों लार्ड कर्जनका दरबार था । उसमें जानेवाले जो राजा महाराजा इस क्लवम थे, मैं उन्हें हमेशा क्लबमें उम्दा बंगाली धोती-कुरता पहने तथा चादर डाले देखता था । ग्राज उन्होंने पतलून, चोगा, खानसामा जैसी पगड़ी और चमकीले बूट पहने । यह देखकर मुझे दुःख हा और इस वेशांतरका कारण उनसे पूछा ।
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'हमारा दुःख हम ही जानते हैं । हमारी धन-संपत्ति और उपाधियोंको कायम रखने के लिए हमें जो-जो अपमान सहन करने पड़ते हैं, उन्हें आप कैसे जान सकते हैं ? उत्तर मिला ।
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' परंतु यह खानसामा जैसी पगड़ी और बूट क्यों ?
'हममें और खानसामामें आपनें फर्क क्या समझा ? वे हमारे खानसामा हैं तो हम लार्ड कर्जन खानसामा हैं ? यदि में दरबारमें गैरहाजिर रहूं तो मुझे उसका फल भोगना पड़े 1 अपने मामूली लिबासमें जाऊं तो वह अपराध समझा जाय । और वहां जाकर भी क्या में लार्ड कर्जनसे बात-चीत कर सकूंगा ? बिलकुल नहीं ।
मुझे इस शुद्ध हृदय भाईपर दया आई ।
इसी तरहका एक और दरबार याद आता है । जब काशी हिंदू विश्व - विद्यालयका शिला पण लाई हाडिन्जके हाथों हुआ तब उनके लिए एक दरबार क्रिया गया था। उसमें राजा-महाराजा तो थे ही; भारतभूषण मालवीयजीने मुझे भी उसमें उपस्थित रहनेके लिए खास तौरपर आग्रह किया था । मैं वहां गया । राजा-महाराजाओं के वस्त्राभूषणोंको, जो केवल स्त्रियोंको ही शोभा दे सकते थे, देखकर मुझे बड़ा दुःख हुआ । रेशमी पाजामे, रेशमी अंगरखे और गले में हीरे-मोतियोंकी मालाएं, बांहपर बाजूबंद और पगड़ियोंपर हीरे-मोतियोंकी