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अध्याय : एक चेतावनी
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इस पुस्तकको मैंने धार्मिक भावना से प्रेरित होकर लिखा है, जिस तरह कि मैंने और लेख भी लिखे हैं और यही धर्म भाव मेरे प्रत्येक कार्यमें श्राज भी वर्तमान है । इसलिए इस बातपर मुझे बड़ा खेद रहता है और बड़ी शर्मं मालूम होती हैं कि आज मैं उसमेंसे कितने ही विचारोंपर पूरा अमल नहीं कर सकता हूं ।
मेरा दृढ़ विश्वास है कि मनुष्य जबतक बालक रहता है तबतक माताका जितना दूध पी लेता है, उसके अलावा फिर उसे दूसरे दूधकी आवश्यकता नहीं है । मनुष्यका भोजन हरे और सूखे वन- पके फलके सिवा और दूसरा नहीं है । बादामादि बीज तथा अंगूरादि फलोंसे उसे शरीर और बुद्धिके पोषण के लिए आवश्यक द्रव्य मिल जाते हैं । जो मनुष्य ऐसे भोजनपर रह सकता है उसके लिए ब्रह्मचर्यादि आत्म-संयम बहुत आसान हो जाता है । 'जैसा आहार तैसी डकार', ' जैसा भोजन तैसा जीवन' इस कहावतमें बहुत तथ्य है । यह मेरे तथा मेरे साथियोंके अनुभवकी बात है। इन विचारोंका सविस्तर प्रतिपादन मैंने अपनी आरोग्यसंबंधी उपर्युक्त पुस्तक में किया है ।
परंतु मेरी तकदीर में यह नहीं लिखा था कि हिंदुस्तान में अपने प्रयोगोंको पूर्णताक पहुंचा दूं । खेड़ा जिलेमें सैन्य भर्तीका काम कर रहा था कि अपनी एक भूलकी बदौलत मृत्यु-शय्यापर जा पड़ा । विना दूधके जीवित रहने के लिए मैंने अबतक बहुतेरे निष्फल प्रयत्न किये हैं। जिन-जिन वैद्य - डाक्टरों और रसायनशास्त्रियोंसे मेरी जान-पहचान थी, उन सबसे मैंने मदद मांगी। किसीने मूंगका पानी, किसी ने महुएका तेल, किसीने बादामका दूध सुझाया । इन तमाम चीजों का प्रयोग करते हुए मैंने अपने शरीरको निचोड़ डाला; परंतु उनसे में रोगशय्यासे न उठ सका ।
वैद्योंने तो मुझे चरक इत्यादिसे ऐसे प्रमाण भी खोजकर बताये कि रोगनिवारणके लिए खाद्याखाद्यमें दोष नहीं, और काम पड़नेपर मांसादि भी खा सकते हैं। ये वैद्य भला मुझे दूध त्यागनेपर मजबूत बने रहने में कैसे मदद दे सकते थे ? जहां 'बीफ टी' और 'बरांडी' भी जायज समझी जाती हो, वहां मुझे दूधत्यागमें कहां मदद मिल सकती है ? गाय-भैंसका दूध तो मैं ले ही नहीं सकता था; क्योंकि मैंने व्रत ले रक्खा था। व्रतका हेतु तो यही था कि दूध मात्र छोड़ दूँ ; परंतु व्रत लेते समय मेरे सामने गाय और भैंस माता ही थी, इस कारण तथा जीवित