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आत्म-कथा : भाग ४
यम-नियमोंके अभ्यासका तथा उनके लिए अब भी प्रयत्न करते रहनेका पूर्ण ज्ञान मुझे है उसी प्रकार इस भेद-भावको बढ़ाने के लिए मैंने कोई खास प्रयत्न किया है, ऐसा याद नहीं पड़ता ।
जिस समय डरबनमें में वकालत करता था उस समय बहुत बार मेरे कारकुन मेरे साथ ही रहते थे । वे हिंदू और ईसाई होते थे, अथवा प्रांतोंके हिसाब से कहें तो गुजराती और मद्रासी । मुझे याद नहीं आता कि कभी उनके विषयमें मेरे मनमें भेद-भाव पैदा हुआ हो। मैं उन्हें बिलकुल घरके ही जैसा. समझता और उसमें मेरी धर्मपत्नी की ओरसे यदि कोई विघ्न उपस्थित होता तो मैं उससे लड़ता था । मेरा एक कारकुन ईसाई था । उसके मां-बाप पंचम जातिके थे । हमारे घरकी बनावट पश्चिमी ढंगकी थी । इस कारण कमरेमें मोरी नहीं होती थी -- और न होनी चाहिए थी, ऐसा मेरा मत है । इस कारण कमरोंमें मोरियोंकी जगह पेशा के लिए एक अलग बर्तन होता था । उसे उठाकर रखनेका काम हम दोनों -- दंपतीका था, नौकरोंका नहीं। हां, जो कारकुन लोग अपने को हमारा कुटुंबी-सा मानने लगते थे वे तो खुद ही उसे साफ कर भी डालते थे; लेकिन पंचम जातिमें जन्मा यह कारकुन नया था। उसका बर्तन हमें ही उठाकर साफ करना चाहिए था । और बर्तन तो कस्तूरबाई उठाकर साफ कर देती ; लेकिन इन भाईका बर्तन उठाना उसे असह्य मालूम हुआ । इससे हम दोनोंमें झगड़ा मचा । यदि मैं उठाता हूं तो उसे अच्छा नहीं मालूम होता था । और खुद उसके लिए उठाना कठिन था। फिर भी प्रांखोंसे मोतीकी बूंदें टपक रही हैं, एक हाथ में बर्तन लिये अपनी लाल-लाल प्रांखोंसे उलाहना देती हुई कस्तूरबाई सीढ़ियोंसे उतर रही हैं ! वह चित्र में आज भी ज्यों-का-त्यों खींच सकता हूं ।
परंतु मैं जैसा सहृदय और प्रेमी पति था वैसा ही निष्ठुर और कठोर भी था। मैं अपनेको उसका शिक्षक मानता था । इससे, अपने ग्रंथप्रेमके अधीन हो, मैं उसे खूब सताता था । इस कारण महज उसके बरतन उठा ले जाने भरसे मुझे संतोष न हुआ । मैंने यह भी चाहा कि वह हंसते और हरखते हुए उसे ले जाय । इसलिए मैंने उसे डांटा-डपटा भी । मैंने उत्तेजित होकर कहा -- "देखो, यह बखेड़ा मेरे घरमें न चल सकेगा ।
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मेरा यह बोल कस्तूरबाईको तीरकी तरह लगा । उसने धधकते दिलसे
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