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आत्म-कथा : भाग ४
'इंडियन प्रोपीनियन' का खर्च बढ़ता जाता था । वेस्टने जो विवरण वहांका पहली ही बार भेजा उसने मेरे कान खड़े कर दिये। उन्होंने लिखा कि जैसा आपने कहा था वैसा मुनाफा इस काम में नहीं है। मुझे तो उल्टा नुकसान दिखाई पड़ता है । हिसाब किताबकी व्यवस्था ठीक नहीं है । लेना बहुत है, और वह वेसिर-पैरका है। बहुतेरा रद्दोबदल करना होगा । परंतु यह हाल पढ़कर आप चिंता न करें; मुझसे जितना हो सकेगा अच्छा प्रबंध करूंगा । मुनाफा न होनेके कारण मैं इस कामको छोड़ न दूंगा ।
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जबकि मुनाफा नहीं दिखाई नहीं दिया था तब वेस्ट चाहते तो वहां के कामको छोड़ सकते थे और मैं उन्हें किसी तरह दोष नहीं दे सकता था । इतना ही नहीं, उल्टा उन्हें अधिकार था कि वह मुझे बिना पूछ-ताछ किये उस काम में मुनाफा बतानेका दोष-भागी ठहराते | इतना होते हुए भी उन्होंने मुझे कभी इसका उलहना तक न दिया; पर मैं समझता हूं कि इस बातके मालूम होनेपर स्टकी नजर मैं एक जल्दी में विश्वास कर लेनेवाला ग्रादमी जंचा होऊंगा । मदनजी की रायको मानकर बिना पूछ-ताछ किये ही मैंने वेस्टसे मुनाफेका जिक्र किया था । पर मेरी यह राय है कि सार्वजनिक कार्यकर्ताओं को वही बात दूसरे से कहनी चाहिए, जिसकी खुद उन्होंने जांच कर ली हो । सत्यके पुजारीको तो बहुत सावधानी रखने की आवश्यकता है । बिना अपना इत्मीनान किये किसीके दिलपर आवश्यकता से अधिक असर डालना भी सत्यको दाग लगाना है । मुझे यह कहते हुए बहुत दुःख होता है कि इस बातको जानते हुए भी जल्दी में विश्वास रखकर काम लेनेकी अपनी प्रकृतिको मैं पूरा-पूरा सुधार नहीं सका । इसका कारण है शक्ति से अधिक काम करनेका लोभ । यह दोष है । इस लोभसे कई बार मुझे दुःख हुआ है और मेरे साथियोंको तो मुझसे भी अधिक मनःक्लेश सहना पड़ा है ।
वेस्टका ऐसा पत्र पाकर मैं नेटालके लिए रवाना हुआ। पोलक मेरी सब बातोंको जान गये थे। स्टेशनपर मुझे पहुंचाने आये और रस्किन रचित 'टु दिस लास्ट' नामक पुस्तक मेरे हाथोंमें रखकर कहा--" यह पुस्तक रास्ते में पढ़ने लायक है | आपको जरूर पसंद आयेगी ।
पुस्तकको जो मैंने एक बार पढ़ना शुरू किया तो खतम किये बिना न छोड़