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आत्म-कथा : भाग ४
raft 'इंडियन ग्रोपीनियन' के संपादक तो मनसुखलाल नाजर ही माने जाते थे, तथापि वह इस योजना में सम्मिलित नहीं हुए थे । उनका घर डरबनमें ही था । डरबनमें 'इंडियन ओपीनियन की एक छोटी-सी शाखा भी थी ।
छापेखाने में कंपोज करने यानी अक्षर जमाने के लिए यद्यपि वैतनिक कार्यकर्त्ता थे, फिर भी उसमें दृष्टि यह रक्खी गई थी कि अक्षर जमाने की क्रिया सब संस्थावासी जान लें और करें; क्योंकि यह है तो ग्रासान, पर इसमें समय 'बहुत जाता है; इसलिए जो लोग कंपोज करना नहीं जानते थे वे सब तैयार हो गये । मैं इस काम में अंततक सबसे ज्यादा पिछड़ा हुआ रहा और मगनलाल गांधी सबसे आगे निकल गये । मेरा हमेशा यह मत रहा है कि उन्हें खुद अपनी शक्तिकी जानकारी नहीं रहती थी । उन्होंने इससे पहले छापेखानेका कोई काम नहीं किया था, फिर भी वह एक कुशल कंपोजीटर बन गये और अपनी गति भी बहुत बड़ा ली । इतना ही नहीं, बल्कि थोड़े ही समय में छापेखाने की सब क्रियायोंमें काफी प्रवीणता प्राप्त करके उन्होंने मुझे आश्चर्य चकित कर दिया ।
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यह काम अभी ठिकाने लगा ही न था, मकान भी अभी तैयार न हुए थे। कि इतने में ही इस नये रत्ते कुटुंबको छोड़कर मुझे जोहान्सबर्ग भागना पड़ा । ऐसी हालत न थी कि मैं वहांका काम बहुत समयतक यों ही पटक रखता ।
जोहान्सवर्ग प्राकर मैंने पोलकको इस महत्त्वपूर्ण परिवर्तनकी सूचना दी। अपनी दी हुई पुस्तकका यह परिणाम देखकर उनके आनंदकी सीमा न रही। उन्होंने बड़ी उमंगके साथ पूछा -- "तो क्या मैं भी इसमें किसी तरह योग नहीं दे सकता ?
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मैंने कहा --- "हां, क्यों नहीं, अवश्य दे सकते हैं। आप चाहें तो इस योजनामें भी शरीक हो सकते हैं ।
"
" मुझे आप शामिल कर लें तो मुझे तैयार ही समझिए 1 " पोलकने जवाब दिया ।
उनकी इस दृढ़ताने मुझे मुग्ध कर लिया । पोलकने 'क्रिटिक' के मालिकको एक महीनेका नोटिस देकर अपना इस्तीफा पेश कर दिया और मियाद खतम होनेपर फिनिक्स आ पहुंचे । अपनी मिलनसारीसे उन्होंने सबका मन हर लिया और हमारे कुटुंबी बनकर वहां बस गये । सादगी तो उनके रगोरेशमें भरी